Saturday, December 20, 2025
HomeUncategorizedरहीमदास: नीति, भक्ति और मानवीय करुणा का शाश्वत स्वर

रहीमदास: नीति, भक्ति और मानवीय करुणा का शाश्वत स्वर

पुनीत मिश्र

“जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग। चन्दन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भुजंग॥”
यह दोहा केवल काव्य-सौंदर्य नहीं, बल्कि मनुष्य के चरित्र का दार्शनिक उद्घोष है। चन्दन की सुगंध जैसे सर्प के विष से दूषित नहीं होती, वैसे ही उत्तम प्रकृति वाला व्यक्ति कुसंग में पड़कर भी अपनी मूल पहचान नहीं खोता। यही जीवन-दृष्टि रहीम की कविता और व्यक्तित्व का केन्द्रीय सूत्र है।
अब्दुर्रहीम ख़ान-ए-ख़ाना, लोकप्रिय रूप में रहीमदास अकबर के नौरत्नों में एक थे। वे सेनापति थे, प्रशासक थे, विद्वान थे; पर इन सबसे ऊपर वे मनुष्य थे। सत्ता के शिखर पर रहते हुए भी उनकी दृष्टि जीवन के सूक्ष्म सत्य पर टिकी रही। यही कारण है कि उनकी कविता दरबार की शोभा बनकर नहीं रह गई, बल्कि लोक-हृदय में बस गई।
रहीम का काव्य लोकभाषा की सहजता और जीवनानुभव की गहराई से जन्मा है। उनके दोहे नीति की कठोरता को करुणा की कोमलता से संतुलित करते हैं। वे मनुष्य को मनुष्य के निकट लाते हैं, अहंकार से सावधान करते हैं, विनय का महत्व समझाते हैं और संबंधों की नाजुकता का बोध कराते हैं। “रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय” जैसे दोहे आज भी रिश्तों की पाठशाला हैं।
भक्ति के क्षेत्र में रहीम का स्थान विशिष्ट है। वे श्रीकृष्ण के अनन्य साधक थे। उनकी भक्ति में संप्रदाय का संकुचित आग्रह नहीं, बल्कि प्रेम का विराट विस्तार है। कृष्ण उनके लिए आराध्य ही नहीं, जीवन-सखा हैं, ऐसा सखा जो मनुष्य की दुर्बलताओं को समझता है और उसे प्रेम से उबारता है। यही भक्ति रहीम को उदार बनाती है, उनके काव्य को समन्वयी बनाती है।
श्रृंगार की अभिव्यक्ति में भी रहीम संयमित और सुसंस्कृत हैं। उनका श्रृंगार भोग नहीं, भाव हैl आकर्षण नहीं, अनुराग है। यह संतुलन उन्हें कालजयी बनाता है। वे जीवन के तीनों आयाम, नीति, भक्ति और श्रृंगार को इस तरह साधते हैं कि कोई भी पक्ष अतिरंजित नहीं होता।
रहीम का जीवन संघर्षों से अछूता नहीं था। सत्ता का वैभव क्षणभंगुर सिद्ध हुआ, व्यक्तिगत दुखों ने उन्हें भीतर तक झकझोरा। पर इन अनुभवों ने उनके काव्य को कड़वा नहीं, बल्कि और अधिक मानवीय बनाया। शायद इसी कारण उनके शब्द आज भी सांत्वना देते हैं, दिशा दिखाते हैं।
रहीमदास की जयंती हमें यह स्मरण कराती है कि सच्ची महानता पद या शक्ति में नहीं, प्रकृति की शुद्धता में है। जब समय शोर से भरा हो, तब रहीम की वाणी मौन में उतरकर हमें मनुष्य बने रहने की शिक्षा देती है। यही उनकी अमरता हैl लोक में, भाषा में और मनुष्यता में।

RELATED ARTICLES
- Advertisment -

Most Popular

Recent Comments