धर्मेंद्र का परिवार बड़ा और सुशोभित है। दो पत्नियां, छह बच्चे, तेरह नाती-पोते और तीन दामाद। लेकिन फिर भी, अपने विशाल फार्म हाउस में वह अकेले रहते हैं, केवल कुछ नौकरों की संगति में। यह तस्वीर केवल धर्मेंद्र की नहीं, बल्कि आज की अधिकांश परिवारों की भी है। यह दिखाता है कि चाहे अमीर हो या गरीब, जीवन के अंतिम पड़ाव में हर इंसान अकेला रह जाता है।
बचपन और युवावस्था में जीवन परिवार और दोस्तों की गर्माहट से भरा रहता है। बच्चे बड़े होते हैं, उनका विवाह होता है, वे अपने-अपने करियर और परिवार में व्यस्त हो जाते हैं। लेकिन वृद्धावस्था में यही बच्चे भी अपने जीवन में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि बुजुर्ग अक्सर अकेले रह जाते हैं। जड़ें, जो हमेशा स्थिर रहती हैं, वहीं रह जाती हैं; जीवन के पेड़ की शाखें अलग-अलग दिशाओं में फैल जाती हैं।
वृद्धावस्था केवल शरीर की कमजोरी का नाम नहीं है, बल्कि यह मानसिक और भावनात्मक एकाकीपन का समय भी है। इंसान अपने जीवन की उपलब्धियों, रिश्तों और परिवार के बीच जब पीछे मुड़कर देखता है, तो अक्सर अपने आप से सवाल करता है – क्या यही जीवन का अंतिम सच है? क्या बुढ़ापा हमेशा अकेलेपन और निर्भरता का प्रतीक होगा?
मैं उस समय के प्रवेश द्वार पर खड़ा हूँ। भविष्य की अनिश्चितताओं को देख कर भयभीत होता हूँ। बचपन में मां-बाप की देखभाल की ज़रूरत होती है, युवावस्था में जिम्मेदारियों का बोझ होता है, और वृद्धावस्था में अकेलेपन और निर्भरता का सामना करना पड़ता है।
खैर, जीवन की यह कथा राम द्वारा रची गई व्यवस्था जैसी ही है। “होइहैं वही जो राम रचि राखा” – अर्थात जो होना लिखा है, वही होगा। वृद्धावस्था को बचपन जैसी सरलता और शांति के साथ कैसे जिया जाए, यह हर व्यक्ति के लिए व्यक्तिगत चुनौती है। यह समय केवल शरीर की देखभाल नहीं, बल्कि मानसिक संतुलन, आत्मिक शांति और समाजिक जुड़ाव की भी मांग करता है।
इस जीवन-यात्रा में एक बात स्पष्ट है – अकेलापन अनिवार्य नहीं, लेकिन सतत प्रयासों और समाजिक जुड़ाव से इसे कम किया जा सकता है। बच्चों और परिवार के साथ समय बिताना, मित्रों और समाज में सक्रिय रहना, अपने शौक और रुचियों को जीवित रखना वृद्धावस्था को बेहतर बना सकता है।
जीवन के अंतिम पड़ाव में भी खुशियों और संतोष को खोजा जा सकता है। अकेलेपन की भावना को स्वीकार करना और उसे सकारात्मक ऊर्जा में बदलना वृद्धावस्था को सहज और मूल्यवान बना सकता है। धर्मेंद्र जैसे कई लोग यही संदेश हमें देते हैं कि जीवन का सबसे कठिन समय भी सही दृष्टिकोण और मानसिक तैयारी से सुंदर बनाया जा सकता है।
बुढ़ापा अकेलापन नहीं, बल्कि जीवन के अनुभवों और आत्मिक शांति का समय होना चाहिए। जीवन के इस पड़ाव में हमें अपने आप से सच्चे संवाद करने की, परिवार और समाज से जुड़ने की और आत्मसंतोष प्राप्त करने की आवश्यकता है। यही वृद्धावस्था की वास्तविक सफलता है।
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