लेखक – कैलाश सिंह
महराजगंज (राष्ट्र की परम्परा)। लोकतंत्र में मतदान केवल एक औपचारिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि वह सबसे सशक्त माध्यम है, जिसके जरिए जनता अपने भविष्य की दिशा तय करती है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब समाज का बड़ा वर्ग निर्णय प्रक्रिया से दूर रहता है, तब उसके दुष्परिणाम केवल वर्तमान ही नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों तक भुगतने पड़ते हैं। सियालकोट का उदाहरण इसी ऐतिहासिक सच्चाई की एक गंभीर चेतावनी के रूप में सामने आता है।
यह तथ्य सर्वविदित है कि सियालकोट अविभाजित भारत का हिस्सा था, लेकिन 1947 के विभाजन के बाद वह पाकिस्तान में चला गया। यह परिवर्तन किसी एक दिन या किसी एक व्यक्ति के निर्णय का परिणाम नहीं था, बल्कि उस दौर की राजनीतिक परिस्थितियों, जनभावनाओं और सामूहिक सहभागिता की कमी का नतीजा था। इतिहास हमें यह भी सिखाता है कि जब आम जनता निष्क्रिय रहती है, तो फैसले कुछ गिने-चुने लोग और परिस्थितियां तय कर देती हैं, और आम नागरिक केवल उनके परिणाम भुगतने को विवश हो जाता है।
आज के लोकतांत्रिक भारत में मतदान से दूरी बनाना उसी ऐतिहासिक भूल को दोहराने जैसा है। यह सोच कि मेरे एक वोट से क्या फर्क पड़ेगा। लोकतंत्र की जड़ों को कमजोर करती है। चुनावों में कम मतदान प्रतिशत न केवल चुने गए जनप्रतिनिधियों की वैधता पर प्रश्नचिह्न लगाता है, बल्कि नीतियों को भी जनहित से दूर ले जाने का कारण बनता है।
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सियालकोट की घटना हमें यह समझाती है कि चुप्पी भी एक प्रकार का निर्णय होती है—और अक्सर यह निर्णय हमारे विरुद्ध चला जाता है। आज जब संविधान ने हमें अपने प्रतिनिधि चुनने का पूर्ण अधिकार दिया है, तब उससे मुंह मोड़ना अपने भविष्य के साथ समझौता करने जैसा है।
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मतदान किसी पार्टी या व्यक्ति के पक्ष में नहीं, बल्कि अपने अधिकार, अपने क्षेत्र और आने वाली पीढ़ियों के हित में होता है। एक मजबूत लोकतंत्र वही होता है, जहां जागरूक नागरिक अधिक से अधिक संख्या में मतदान करते हैं, सवाल पूछते हैं और जवाब मांगते हैं। इसलिए जरूरी है कि हम इतिहास की गलतियों से सबक लें और हर चुनाव में अपनी जिम्मेदारी निभाएं, क्योंकि आज की उदासीनता कल का पछतावा बन सकती है।
