
“हमारी जाति एचएयू: हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय में छात्र आंदोलन और जातिगत अन्याय के खिलाफ उठती आवाज”
हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय (एचएयू), हिसार – देश के प्रतिष्ठित कृषि संस्थानों में गिना जाता है। पर आज यह संस्थान छात्रों के लिए जातिगत अपमान और प्रशासनिक चुप्पी का केंद्र बन गया है। “हमारी जाति एचएयू” यह नारा केवल नारा नहीं रहा, यह छात्रों की पहचान, आत्मसम्मान और प्रतिरोध की आवाज बन चुका है। एक छात्र ने सवाल किया: “हम शिकायत करें तो क्या पहले अपनी जाति साबित करनी होगी?”
“बताइए, कौन-सा खून किस जाति का है?” यह सवाल केवल एक वाक्य नहीं है, बल्कि एचएयू (हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय), हिसार में जारी छात्र आंदोलन की आत्मा है। यह उन विद्यार्थियों की पुकार है जो शिक्षा के मंदिर में जातिगत भेदभाव और सत्ता की चुप्पी के खिलाफ लड़ रहे हैं।
एचएयू के छात्र पिछले 9 दिनों से लगातार धरने पर बैठे हैं, लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन और समिति की चुप्पी उनके जख्मों पर नमक छिड़कने का काम कर रही है। अब यह आंदोलन केवल प्रशासनिक लापरवाही के खिलाफ नहीं, बल्कि जातिवाद की संस्थागत संरचना के विरुद्ध हो चुका है।
एचएयू: एक प्रतिष्ठित संस्थान, एक गहरी पीड़ा
चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय (एचएयू) को देशभर में कृषि अनुसंधान और शिक्षा के एक प्रमुख केंद्र के रूप में जाना जाता है। पर आज वही संस्थान जाति के कीचड़ में लिपटा हुआ दिख रहा है।
छात्रों का आरोप है कि विश्वविद्यालय के एक वरिष्ठ अधिकारी द्वारा जातिगत टिप्पणी की गई, और जब उन्होंने इसके खिलाफ आवाज उठाई, तो न सिर्फ उन्हें टालने की कोशिश की गई, बल्कि उन्हें ही जाति के सवालों में उलझा दिया गया।
“हमारी जाति एचएयू” – प्रतिरोध का एक नारा
धरने में एक छात्र का हाथ में पकड़ा पोस्टर अब पूरे हरियाणा में चर्चा का विषय बन चुका है – “हमारी जाति एचएयू”। यह नारा सिर्फ एक भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि एक वैचारिक प्रतिरोध है।
यह कह रहा है कि छात्रों की जाति न तो उनके उपनाम से तय होगी, न ही जन्म से, बल्कि उनके संस्थान, उनके ज्ञान और उनकी चेतना से होगी।
छात्रों के सवाल, समिति की चुप्पी
जब प्रशासन की तरफ से एक समिति छात्रों से बातचीत के लिए आई, तो उन्होंने पहले सुझाव दिए। लेकिन छात्रों का सीधा और स्पष्ट उत्तर था – “पहले हमारे सवालों का जवाब दो”।
छात्रों ने पूछा:
“हमें जाति क्यों पूछी गई?”
“कोब्स-सा खुद किस जाति का था?”
“हम शिकायत करें तो क्या हमें पहले अपनी जाति साबित करनी होगी?”
लेकिन समिति इन प्रश्नों पर मौन रही। छात्रों ने इस चुप्पी को सत्ता की स्वीकृति बताया — और ये मौन उस जातिगत मानसिकता की गूंगी पुष्टि बन गया जो वर्षों से उच्च शिक्षा संस्थानों में पलती रही है।
आंदोलन की विशेषताएँ: भूख हड़ताल की चेतावनी और मानवाधिकार आयोग से संपर्क
छात्रों ने अब सांकेतिक भूख हड़ताल की घोषणा कर दी है। उनका कहना है कि जब तक उन्हें स्पष्ट उत्तर और न्याय नहीं मिलता, वे पीछे नहीं हटेंगे।
उन्होंने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से भी औपचारिक शिकायत दर्ज करवाई है, जिससे यह आंदोलन अब न केवल एचएयू परिसर का मामला रहा, बल्कि एक राष्ट्रीय मानवाधिकार संकट का रूप ले चुका है।
जातिवाद का संस्थानीकरण – एक खतरनाक प्रवृत्ति
आज का भारत तकनीकी, आर्थिक और डिजिटल रूप से जितनी तेजी से आगे बढ़ रहा है, सामाजिक मानसिकता उतनी ही जड़ हो रही है। जब देश का सबसे बड़ा कृषि विश्वविद्यालय जातिवादी मानसिकता के अधीन काम करता है, तो यह न केवल शिक्षा की गरिमा को चोट पहुँचाता है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के सोचने के अधिकार को भी छीनता है।
शिक्षा संस्थानों में जातिगत टिप्पणियाँ अब अपवाद नहीं, एक संस्थागत चलन बन चुकी हैं। यह चलन जब तक नहीं टूटेगा, तब तक न रोहित वेमुला का सवाल रुकेगा, न एचएयू के छात्रों की भूख।
कृषि विश्वविद्यालय में जाति – सबसे विडंबनापूर्ण सत्य
कृषि भारत की रीढ़ है, और कृषि शिक्षा संस्थान किसानों के बेटों-बेटियों के सपनों का केंद्र। पर जब वही संस्थान उन्हें उनकी जाति की हैसियत से तोलने लगे, तो यह सिर्फ शिक्षा की असफलता नहीं, यह पूरे ग्रामीण भारत की पीड़ा की प्रतीक बन जाती है।
कई छात्र स्वयं पिछड़े या दलित समुदायों से आते हैं। उनके लिए शिक्षा ही एकमात्र साधन है जो उन्हें खेत की मेड़ से वैज्ञानिक प्रयोगशाला तक पहुंचा सकता है। लेकिन यदि संस्थान ही उन्हें “तू कौन जात?” जैसे सवालों में उलझा दे, तो यह शुद्ध अन्याय है।
छात्रों को मिला सामाजिक समर्थन
इस आंदोलन में सिर्फ छात्र ही नहीं, किसान संगठन, सामाजिक कार्यकर्ता, वरिष्ठ पूर्व छात्र, और यहां तक कि विधायक और जन प्रतिनिधि भी छात्रों के पक्ष में खड़े हो गए हैं। यह दिखाता है कि यह लड़ाई अब अकेली नहीं है।
छात्रों ने यह साफ कर दिया है कि अगर उनकी आवाज़ दबाई गई, तो वे शांत नहीं बैठेंगे। “हमारी जाति एचएयू” अब नारा नहीं, चेतावनी बन चुका है।
प्रशासन का असफल संवाद
एचएयू प्रशासन इस पूरे मामले में अपनी भूमिका को लेकर असहज और असमर्थ दिख रहा है। कुलपति की चुप्पी, समिति के जवाब न देने की नीति, और केवल औपचारिकता निभाने वाले अधिकारियों ने छात्रों की नाराजगी को और गहरा कर दिया है।
प्रशासन को यह समझना चाहिए कि “संवाद” कोई अनुग्रह नहीं, लोकतंत्र की अनिवार्यता है।
यदि छात्र सवाल पूछ रहे हैं, तो प्रशासन का कर्तव्य है कि वह ईमानदारी से उत्तर दे, न कि उन्हें ‘अशिष्ट’ कहकर खारिज करे।
अब आगे क्या होना चाहिए?
स्वतंत्र और पारदर्शी जांच कमेटी बनाई जाए जिसमें छात्र प्रतिनिधि भी शामिल हों।
जातिगत टिप्पणी करने वाले अधिकारी पर तत्काल कार्यवाही हो।
विश्वविद्यालय में जाति-निरपेक्ष संवाद और प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाएँ।
छात्र संघ को वैधानिक मान्यता और स्वतंत्रता दी जाए।
शिक्षा विभाग और सरकार को एचएयू जैसे संस्थानों की जवाबदेही तय करनी होगी।
एचएयू से देशभर के विश्वविद्यालयों तक फैलती चेतना
यह आंदोलन केवल एचएयू का नहीं है। यह उस नवीन छात्र चेतना का प्रतीक है जो अब जाति, भ्रष्टाचार और संस्थागत अन्याय के खिलाफ खड़ी हो रही है।
यह वही चेतना है जो रोहित वेमुला की चुप्पी से जन्मी,
जेएनयू की दीवारों पर लिखी गई,
और अब एचएयू के पोस्टरों पर ‘हमारी जाति एचएयू’ बनकर चमक रही है।
छात्रों की मांगें कोई असंभव बातें नहीं हैं — वे सिर्फ न्याय, समानता और गरिमा की उम्मीद कर रहे हैं।
और यदि एक कृषि विश्वविद्यालय में छात्र समानता नहीं पा सकते, तो कृषि का भविष्य और समाज की आत्मा — दोनों ही खतरे में हैं।
एचएयू को अब तय करना होगा:
वह इतिहास में किस रूप में दर्ज होना चाहता है –
एक जातिवादी संस्थान के रूप में,
या एक सुधरते हुए लोकतांत्रिक विश्वविद्यालय के रूप में।
निर्णय उसके हाथ में है।
लेकिन आवाज अब छात्रों के साथ है।
और वह आवाज अब दबने वाली नहीं।
प्रियंका सौरभ
स्वतन्त्र पत्रकार एवं स्तम्भकार
हिसार
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