भारत की सांस्कृतिक परंपरा में दशहरा और दुर्गा पूजन का पर्व सदियों से विशेष स्थान रखता है। 1980 से 1990 के दशक का दौर ग्रामीण और कस्बाई जीवन में मेलों और उत्सवों का स्वर्णकाल कहा जा सकता है। उस समय न तो मोबाइल फोन थे, न इंटरनेट और न ही मनोरंजन के इतने साधन। गाँव और कस्बों में सालभर लोग इसी इंतज़ार में रहते थे कि दशमी का मेला कब आएगा। यह मेला केवल धार्मिक आयोजन ही नहीं, बल्कि लोकजीवन, व्यापार, मनोरंजन और सामाजिक मेलजोल का अनोखा अवसर होता था।

- पर्व की पृष्ठभूमि और धार्मिक आस्था
1980-90 के दशकों में दशहरा और दुर्गा पूजन का महत्व केवल धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि सामाजिक दृष्टि से भी बहुत बड़ा था। गाँव-गाँव और कस्बों में दुर्गा पूजा पंडाल सजते थे। मिट्टी की प्रतिमाओं में माँ दुर्गा और उनके परिवार को बेहद भावनात्मक रूप से पूजा जाता। श्रद्धालु उपवास रखते, भजन-कीर्तन होते और दुर्गा सप्तशती का पाठ गाँव के पंडितजी या भजन मंडली द्वारा सामूहिक रूप से किया जाता।
दशमी के दिन रावण दहन और मेला दोनों का उत्साह अपने चरम पर होता। उस समय लोग इसे केवल मनोरंजन के रूप में नहीं, बल्कि अच्छाई की बुराई पर जीत के प्रतीक के रूप में देखते थे।
- मेले की तैयारी और उत्सुकता
मेले की तैयारियाँ लगभग एक माह पहले से शुरू हो जाती थीं। गाँव के लड़के नये कपड़ों की आस लगाते, महिलाएँ विशेष पकवान बनाने की योजना बनातीं और दुकानदार अपनी झोपड़ीनुमा दुकानों के लिए सजावटी सामग्री जुटाते।
उस समय बिजली की उपलब्धता सीमित थी , इसलिए मेले में अधिकतर जगह लालटेन और जनरेटर की रोशनी होती थी। पंडालों को बाँस, बल्लियों और रंगीन कागज से सजाया जाता। गाँव-कस्बों की गलियाँ पुताई कर साफ की जातीं और जगह-जगह स्वागत द्वार बनाए जाते।
- मेले का दृश्य
जैसे ही दशमी का दिन आता, सुबह से ही बच्चों और युवाओं में उत्साह छलक उठता। सिर पर रूमाल बाँधे लड़के और चुन्नी ओढ़े लड़कियाँ, नए कपड़ों में सजी महिलाएँ, धोती-कुर्ता पहने बुजुर्ग—सभी मेलास्थल की ओर बढ़ते।
मेले में पहुँचते ही ढोल-नगाड़ों, शंखध्वनि और रामायण मंडली के गीत गूँज उठते। जगह-जगह हलवे-जलेबी, चाट, समोसे और गन्ने के रस की दुकानें सजी होतीं। बच्चों के लिए लकड़ी के खिलौने, बाँसुरी, गुब्बारे, प्लास्टिक की बंदूकें और रंगीन चकरी (पंखे) उपलब्ध रहते। उस दौर में यही बच्चों के लिए बड़े खजाने होते।
- रावण दहन और नाटक मंडली
दशमी के मेले का सबसे बड़ा आकर्षण रावण दहन होता। गाँव या कस्बे के युवकों की टोली महीनों पहले से बाँस, कागज और पटाखों से विशालकाय रावण, मेघनाथ और कुंभकर्ण का पुतला बनाती। जब रात को इनका दहन होता, तो हजारों लोग तालियाँ बजाकर जय-जयकार करते।
इसके अलावा मेले में रामलीला मंडली भी खूब प्रसिद्ध होती। कलाकार साधारण कपड़ों और मेकअप से ही श्रीराम, सीता, लक्ष्मण और रावण का अभिनय करते। लोग मंत्रमुग्ध होकर रातभर नाटक देखते। उस दौर में टीवी सबके घरों में नहीं था, इसलिए यह लाइव नाटक लोगों के लिए जादुई अनुभव जैसा होता।
- लोककलाओं और झूलों का आकर्षण
मेले का सबसे बड़ा आनंद झूले में होता। लकड़ी और लोहे के झूले, मौत का कुआँ, सर्कस, कठपुतली का खेल—ये सभी दर्शकों को लुभाते। बच्चे झूले के टिकट के लिए मिन्नतें करते और माता-पिता उन्हें संतुष्ट करने की कोशिश करते।
बाँसुरी की मधुर धुन, बायस्कोप में चलने वाले पाँच मिनट के फिल्मी दृश्य और लोक कलाकारों के नृत्य-गान से पूरा मेला जीवंत हो उठता। - सामाजिक मेलजोल और रिश्तों का ताना-बाना
दशमी का मेला केवल मनोरंजन का साधन नहीं था, बल्कि रिश्तों को जोड़ने और निभाने का माध्यम भी था। गाँव के बिछुड़े लोग मेलों में मिलते, रिश्तेदार एक-दूसरे के घर जाते और आपसी संवाद से संबंध मजबूत होते।
महिलाएँ इस अवसर पर अपनी सहेलियों से मिलतीं और नए कपड़े-गहने दिखाकर खुशी बाँटतीं। युवाओं के लिए यह अपने दोस्तों के साथ हँसी-ठिठोली और भविष्य की योजनाएँ बनाने का समय होता। - मेले की आर्थिक गतिविधियाँ
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में दशमी का मेला महत्वपूर्ण योगदान देता था। छोटे दुकानदार, खिलौना बनाने वाले, मिठाई बेचने वाले और कलाकार इस मौके पर अच्छा लाभ कमाते। यही कारण था कि कई परिवार सालभर इस मेले की कमाई पर निर्भर रहते थे। - 1990 के बाद बदलती तस्वीर
90 के दशक के बाद जैसे-जैसे टीवी, वीडियो गेम और शहरी संस्कृति का प्रसार हुआ, मेले की पारंपरिक चमक थोड़ी कम होने लगी। बड़े शहरों के आकर्षण ने गाँवों और कस्बों के मेलों की गरिमा को प्रभावित किया। फिर भी, आज भी इन मेलों में उस दौर की झलक मिल जाती है। - अनुभव और स्मृतियाँ
आज भी जो लोग 80-90 के दशक में दशमी के मेले का हिस्सा बने थे, उनकी यादों में वह दौर अमिट छाप छोड़ गया है। उस समय का निष्कपट उत्साह, सादगी, मेलजोल और लोकजीवन की झलक आज की कृत्रिम चकाचौंध में कहीं खो सी गई है।
1980 से 1990 के दशक का दशमी का मेला भारतीय समाज की जीवंत संस्कृति का दर्पण था। यह केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि लोक जीवन का उत्सव था, जिसमें श्रद्धा, मनोरंजन, व्यापार और सामाजिक जुड़ाव सब कुछ एक साथ दिखाई देता था। आधुनिक समय में भले ही इन मेलों का स्वरूप बदल गया हो, लेकिन उस दौर की स्मृतियाँ आज भी पीढ़ियों को अपनी ओर खींचती हैं।