वादों की राजनीति से नीति की दिशा तक — बिहार की चुनौतियाँ
गोंदिया – वैश्विक स्तरपर दुनियाँ के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के एक राज्य बिहार क़ा विधानसभा चुनाव 2025 सभी 243 सीट पर दो चरण में चुनाव होंगे। पहले चरण के लिए 6 नवंबर को और दूसरे चरण के लिए 11 नवंबर को वोटिंग होगी।वहीं, चुनाव के नतीजे 14 नवंबर को जारी किए जाएंगे, चुनाव का आयोजन ऐसे समय पर हो रहा है जब भारत का राजनीतिक- सामाजिक परिदृश्य तेजी से बदल रहा है। राज्य में विगत दशकों से गरीबी, बेरोज़गारी, किसान समस्या, आधारभूत सुविधाओं की कमी, प्रवासन-मुद्रा जैसे कई प्रश्न बने हुए हैं।
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ऐसे में जब प्रमुख राजनीतिक दलों ने यह दावा किया है कि यदि उनकी सरकार बनेगी तो सत्ता में रहकर ‘समृद्धि -युग’ की तरह का शासन लागू करेंगे, तो यह दावा महज़ चुनावी वादा नहीं बल्कि एक रणनीतिक एवं प्रतीकात्मक प्रस्ताव भी बन गया है। इस लेख का उद्देश्य उन वादों को अंतरराष्ट्रीय अर्थों में देखना है कि ये वादे किस प्रकार समकालीन लोकतंत्र, विकास, सामाजिक न्याय तथा नीति क्रियान्वयन की चुनौतियों से टकरा रहे हैं; और उन्हें सफलता पूर्वक लागू होने की दृष्टि से कहाँ-कहाँ मुश्किलें हैं। इस बार बिहार में कुल २४३ सीटों वाली विधानसभा के लिए मतदान हो रहा है, जिसमें विभिन्न दल तथा गठबंधन बड़े पैमाने पर चुनावी मैदान में हैं।राज्य के भीतर विकास-प्रगति की पुरानी कहानियाँ भी हैं,लेकिन उन्हें अब तक पूरी तरह सफल नहीं कहा जा सकता।
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ऐसे में जब राजनीतिक दल बड़े-बड़े वादे कर रहे हैं,जैसे पर्याप्त रोजगार, सामाजिक सुरक्षा, घोषणाएँ पेंशन-भत्तों की, स्थानीय प्रतिनिधियों को सुविधा-आधार देना,यह महज घोषणाएँ नहीं बल्कि चुनावी विमर्श का केंद्र बन चुकी हैं। जब राजनीतिक दलों द्वारा यह कहा जाता है कि “हम ऐसा शासन लाएँगे कि ‘समृद्धि- युग जैसा होगा”, तो यह एक प्रतीकात्मक भाषा है जिसमें अपेक्षा है कि गरीबी और असमानताओं का अंत हो, सुशासन कायम हो, प्रत्येक नागरिक को अवसर मिले, सुरक्षित एवं सम्मानित जीवन मिले। भारतीय सार्वभौमिक मिथकों में,‘समृद्धि-युग उस युग को कहते हैं जहाँ धर्म, समता, न्याय पूर्ण रूप से थे। इसे राजनीतिक रंग में मोड़ना महत्वपूर्ण है,यह दर्शाता है कि दल चाहते हैं कि जनता उनसे सिर्फ सफ़ल शासन नहीं बल्कि एक प्रकार का “उत्कृष्ट शासन” अपेक्षित करती है। इस रूपक में वादों का स्वराहार है: “यदि हम सत्ता में आएँगे, तो राज्य हमारे तरीके से बदलेगा, व्यवस्था हमारी तरह बनेगी”।
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साथियों बात अगर हम चुनावी वादों क़े व्यावहारिक अर्थ को समझने की करें तो,वास्तव में, इन वादों के पीछे कुछ स्पष्ट नीतिगत बिंदु हैं,जैसे रोजगार सृजन, पंचायत सीटों का सशक्तिकरण,सामाजिक सुरक्षा, महिला -सशक्तिकरण, भूमि सुधार, शराब नीति की समीक्षा, आधारभूत सुविधाओं का विस्तार आदि। इससे यह स्पष्ट है कि प्रमुख दलों ने ‘सामाजिक न्याय’ और ‘सकल विकास’ की भाषा को अपनाया है। इस अर्थ में इन वादों का स्वर अंतरराष्ट्रीय विकास व राजनीति-विज्ञान के संदर्भ से भी देखा जा सकता है,जिसमें ‘जन कल्याण’, ‘नीतिगत समावेशन’,‘भेदभाव न्यूनीकरण’ जैसे उद्देश्य शामिल हैं,हालाँकि वादे सुंदर लगते हैं, लेकिन उनका क्रियान्वयन सहज नहीं है। विकास-प्रबंधन, वित्तीय संसाधन की कमी, बुनियादी प्रशासनिक ढांचे की जटिलताएँ, चयन प्रक्रिया एवं भ्रष्टाचार- प्रवृत्तियाँ, राजनीतिक बदलता गठबंधन- परिस्थितियाँ ये सभी अवरोध हैं। उदाहरण स्वरूप, बिहार में अब तक विकास के वादे किए गए, लेकिन राज्य लगातार सुस्त विकास दर, उच्च प्रवासन दर व अर्थव्यवस्था की कमजोरियों से जूझ रहा है। जब एक राजनीतिक दल कहता है कि “हर परिवार को सरकारी नौकरी मिलेगी”तो यह बजट- संसाधन,भर्ती-नीति, प्रशिक्षण- संस्थान, पारदर्शिता व निष्पादन की चुनौतियों को सामने लाता है। इसी तरह, बड़ी सामाजिक-निति घोषणाएँ जैसे ‘भूमिहीनों को भूमि’ या ‘65 % आरक्षण’ केवल घोषणा ही नहीं, बल्कि विस्तृत क़ानूनी, आर्थिक, प्रशासनिक तैयारी और संभवतः संवैधानिक चुनौतियों का सटीक सामना करती हैं।
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साथियों बात अगर हम चुनावी वादों के अंतरराष्ट्रीय- सापेक्ष रूप में विश्लेषण की करें तो,दुनियाँ के विभिन्न लोकतंत्रों में भी पार्टियों द्वारा बड़े वादे करना आम बात है जैसे ‘सर्वस्व रोजगार’,‘समान अवसर’, ‘सामाजिक कल्याण राज्य’ इत्यादि। लेकिन अंतरराष्ट्रीय अनुभव यह दिखाता है कि वादों और वास्तविक परिणामों के बीच अक्सर एक खाई होती है।अन्तरराष्ट्रीय विश्लेषण से यह भी निकलता है कि जब कोई सरकार बड़े वायदे करती है, तो उसे ‘प्रदर्शन योग्य संकेत’ पारदर्शिता, जवाबदेही तथा समय-बद्धता की आवश्यकता होती है। उदाहरण स्वरूप, यदि घोषणाएँ इसकी समयसीमा या मापदंडों के साथ नहीं हों तो वे मात्र चुनावी घोषणा रह जाती हैं। इस दृष्टि से, बिहार के वादों को मापने योग्य लक्ष्य-रीति के साथ देखना होगा।वस्तुतः,इन वादों के माध्यम से राजनीतिक दल चुनाव में दो प्रमुख रणनीतिक धारणाएँ ले चले हैं: (१)चहुँ-मुखी कल्याण – वाद अर्थात् प्रत्यक्ष लाभ-वाद तथा (२) पहचान-वाक्य, उदाहरण के लिए ‘बिहारियत गौरव’, ‘गरीब-वर्ग की आवाज’, ‘पिछड़े/दलित/ओबीसी वर्ग का अधिकार’। यह रणनीति सिर्फ स्थानीय चुनावी भूगोल तक सीमित नहीं है बल्कि वैश्विक संदर्भ में देखा जाए तो “वोटोबेस की उम्मीदों का प्रबंधन”कहलाती है। जब एक दल कहता है कि यदि हम आएँगे तो राज्य का चित्र बदल जाएगा, तो यह न केवल एक राजनीतिक वादा होता है बल्कि एक प्रतीकात्मक प्रस्ताव होता है कि ‘आपका जीवन बदलेगा, आप अगली कड़ी के विकास-युग में होंगे’,इसके साथ ही, इस प्रकार के वादे यह संकेत देते हैं कि राज्य-प्रशासन, सरकार-यंत्रणा, सार्वजनिक- नीति को पुनः स्थापित किया जाएगा। अर्थात्, यह सिर्फ नया स्कीम व योजना नहीं, बल्कि ‘राजनीति-सेवा’ के स्वरूप का परिवर्तन है। उपरोक्त रूपक में “उत्कृष्ट शासन बनाना” दरअसल एक भाषा है जो कहती है: “हम पुरानी राजनीति को खत्म करेंगे, हम नया मॉडल लाएँगे”।
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साथियों बात अगर हम वादा- भाषा में “ कुशल से उत्कृष्ट शासन” की रूपक उत्तेजक है इसको समझने की करें तो, सामाजिक विज्ञान में यह देखा गया है कि बहुत ऊँची उम्मीदें एवं कम परिणाम सामाजिक -राजनीतिक अस्थिरता पैदा कर सकते हैं। इसलिए इस रूपक- उपयोग में यह सावधानी जरूरी है कि घोषणा- वाक्य के साथ कार्यान्वयन-योजना भी हो, इस पर बिहार की जनता ने जरूर ध्यान देना चाहिए। बिहार की सामाजिक-आर्थिकवास्तविकताएँ वादों की परछाई से बहुत जटिल हैं। उदाहरणार्थ: राज्य में उच्च प्रवासन दर है; युवा रोजगार पर्याप्त नहीं हैं; इसीलिए ही एक पार्टी के संस्थापक ने कहा है क़ि हमें सस्ता डेटा नहीं, अपना बेटा चाहिए, जो बाहर में नौकरियां कर रहे हैं और अभी बिहार में छठ पूजा मनाने ट्रेनों में भारी भरकम भीड़ में टॉयलेट पर बैठकर सोकर आए हैं हम उन्हें रोजगार देंगे उन्होंने उनको आव्हान किया है कि 14 तारीख तक यही रहे और हमारी पार्टी आ गई तो फैक्ट्री मालिक को संदेश भेज दें कि हमें यहां रोजगार मिल जाएगा हमें वापस नहीं आएंगे परंतु उसका कुछ रोड मैप बताया नहीं गया है।कृषि- निर्भरता अभी भी बहुत अधिक है;शिक्षा-स्वास्थ्य- आधारभूत सुविधाओं में कमी है, इन परिस्थितियों में जब वादे,जैसे “हर परिवार को नौकरी”, “भूमिहीन को भूमि”, “पंचायती प्रतिनिधि को पेंशन/बीमा” दिए जा रहे हैं, तो यह जरूरी है कि राज्यों की वित्तीय स्थिति, केंद्र-राज्य संबंध, राज्य-प्रशासन की दक्षता और निजी-क्षेत्र की भागीदारी पर गंभीर विचार किया जाए।उदाहरण स्वरूप, सरकारी नौकरी देने का वादा तभी व्यवहार्य होगा जब राज्य-सरकार योग्य संसाधन जुटा सके, भर्ती- प्रक्रिया पारदर्शी हो,और सरकारी पदों की संख्या पर्याप्त हो। इन सबमें समय,संसाधन,प्रशासनिक इच्छाशक्ति और निगरानी-यंत्रणा महत्वपूर्ण है।
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साथियों बात अगर हम ‘यदि’-का प्रश्न को लेकर इसका विश्लेषण करें तो, जितना वादा किया गया है, उतनी ही बड़ी चुनौतियाँ भी सामने हैं। यदि क्रियान्वयन में चूक हुई, तो यह वादे जनता- विश्वास को प्रभावित कर सकते हैं। नीचे कुछ ‘यदि’-प्रश्न दिए जा सकते हैं,(1)यदि पर्याप्त वित्तीय संसाधन नहीं मिले, तब कौन-से वादे प्राथमिकता के आधार पर पूरे होंगे?,(2)यदि भर्ती-नीति या भूमि- वितरण में समय-अवरोध, कानूनी चुनौतियाँ या भ्रष्टाचार हुआ, तो परिणाम क्या होंगे?,(3)यदि आर्थिक परिस्थितियाँ, जैसे वैश्विक मंदी, राजस्व-घाटा, बजट- दबाव बिगड़ गईं,तब योजनाएँ कैसे टिकेंगी?(4)यदि निगरानी तथा जवाबदेही की व्यवस्था कमजोर रही, तब जनता को भरोसा कैसे बना रहेगा? (5) यदि वादों के पूरा न होने पर राजनीतिक असंतोष बढ़ा, तो राज्य-स्थिरता पर क्या प्रभाव होगा? इसलिए हमें सार्वभौमिक तत्व एवं वैश्विक स्तरपर ध्यान देने की आवश्यकता है कि वैश्विक राजनीति -विज्ञान से हमें यह सीख मिलती है कि वादों का असर तभी दीर्घकालीन होता है जब वे संस्था-निर्माण, जवाबदेही सुधार,संसाधन संकलन एवं परिचालन दक्षता-वर्धन के साथ हों। उदाहरण स्वरूप,कई विकासोन्मुख देशों में कल्याण- राज नीतियों ने सफलता पाई है क्योंकि उन्होंने वित्तीय व प्रशासनिक स्थिरता बनाई। उसी तरह, जब किसी राज्य सरकार ने बड़े वादे किए हैं लेकिन प्रशासनिक पूर्वप्रत्यय न था, तो परिणाम कम-रूचि वाले रहे हैं। इस दृष्टि से, बिहार के संदर्भ में यह महत्वपूर्ण है कि वादे विधान-न्याय,संसाधन-वित्त,प्रशासन -सुधार और निगरानी-यंत्रणा से बंधे हों।
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अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर इसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे क़ि बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के संदर्भ में राजनीतिक दलों द्वारा किये जा रहे वादे “उत्कृष्ट शासन” का रूपक अपनाते हुए, उन्हें केवल वादा-स्तर पर नहीं छोड़ना होगा,बल्कि उन्हें व्यवहार में लाना होगा संसाधनों, संस्था- निर्माण,उत्तरदायित्व एवं समय- बद्धता के साथ।यदि यह हुआ, तो वाकई बिहार समाज-व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा होगा। लेकिन यदि यह नहीं हुआ, तो वादों की खाली प्रतिज्ञाएँ जन उम्मीदों को निराशा में बदल सकती हैं। अंतरराष्ट्रीय दृष्टि से यह ध्यान देने योग्य है कि लोकतंत्रों में वादे-वाद और परिणाम-दान के बीच संतुलन बनाए रखना ही बड़ी भूमिका निभाता है। बिहार-विकास के इस युग में, यदि दल अपने वादों को सत्य-परक नीति-ऊर्जा में बदल दें,तो यह ‘सतयुग’ का “उत्कृष्ट शासन”अनुभव हो सकता है,नहीं तो यह सिर्फ वादा-युग ही रह जाएगा।
–संकलनकर्ता लेखक-कर विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार अंतर्राष्ट्रीय लेखक चिंतक कवि सीए(एटीसी) संगीत माध्यमा एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र 9226229318
