मूर्खता और अड़ियलपन से भरी नकटी सरकार -विष्णु नागर
तो मोदी सरकार ने अपनी नाक केरल में कटवा ली। यही इन्हें पसंद भी है। संसद हो या सड़क, सब जगह नाक कटवाना इनकी पहली प्राथमिकता है
केरल में चल रहे तीसवें अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में कल 19 फिल्में दिखाने से सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने रोक दिया था। थोड़ा हल्ला मचा, तो अब 19 में से पांच फिल्मों को दिखाने की रियायत देने की उदारता बरती है।14 फिल्मों पर रोक फिर भी जारी रहेगी, मगर केरल सरकार ने निर्णय लिया है कि सभी फिल्में दिखाई जाएंगी। मुख्यमंत्री तथा संस्कृति मंत्री ने इसकी घोषणा कर दी है।
दिलचस्प यह है कि अभी भी सर्गेई आइंस्टीन की सौ वर्ष पुरानी मूक फिल्म ‘बैटलशिप पोटेमकिन” को दिखाने की मंजूरी नहीं दी गई है,जो बरसों से यूट्यूब पर उपलब्ध है और कल मैंने फिर इसे देखा। यह उस देश की फिल्म है, जिसके राष्ट्रपति पुतिन से हमारे प्रधानमंत्री ने अभी-अभी गलबहियां की थीं। तमाम औपचारिकताओं को धता बताते हुए उन्हें हवाई अड्डे पर लेने गए थे!
ठीक है, अब सोवियत संघ इतिहास बन चुका है, मगर उस दौर में जो फिल्में आईं, साहित्य आया, उसका क्या करेंगे? और यह दुनिया की क्लासिक फिल्मों में से है। इसे दिखाने का उद्देश्य केवल यह याद दिलाना था कि इसके रिलीज होने के सौ वर्ष हो गए। इसका रूसी क्रांति से कोई सीधा लेना-देना भी नहीं है। सोवियत संघ के जमाने में लियो तोल्स्तोय, चेखव, गोर्की, दास्तोवस्की, रसूल हमजातोव आदि अनेक महान रूसी साहित्यिकों की किताबें हिंदी में अनूदित हुईं और पढ़ी गईं और आज भी पढ़ी जा रही हैं। उस पर रोक लगा सकते हो?
फिलीस्तीन का समर्थन इस समय भारत में अपराध बना दिया गया है ,जबकि तमाम पूंजीवादी देशों की जनता फिलीस्तीन के पक्ष में खड़ी हुई, इस्राइल के हक में नहीं।दो फिलीस्तीनी फ़िल्मों को दिखाने से भी रोका गया है। ‘संतोष ‘नामक भारतीय फिल्म को भी दिखाने से रोका गया है, क्योंकि वह पुलिस की बर्बरता दिखाती है। जैसे उसे न दिखाने से भारतीय जनों को रोज के अनुभवों के जरिए वह नहीं दिखाई दे रही है। हद तो यह है कि जिन फिल्मकार सिस्को को इस फिल्म समारोह में सम्मानित किया जा रहा है, उनकी भी दो फिल्में दिखाने से रोक दी गई थीं।
हर तरफ दादागीरी, गुंडागर्दी। कला और फिल्म की दुनिया में भी। और यही मोदी सरकार लगातार हिंदूवादी नफ़रत उगलने वाली फिल्में बनाने को प्रोत्साहित करती जा रही है। इनमें कुछ बुरी तरह पिटी हैं और कुछ चली हैं। एक फिल्म का प्रचार तो स्वयं महामानव ने किया था!
अब सहलाओ अपने घाव! ये 14 फिल्में तो केरल में दिखाई जाएंगी! मूर्खता और अड़ियलपन दिखाने का यही हश्र होता है!
अच्छा ये बताओ अगर ये 14 फिल्में तुम्हारी मंजूरी से दिखा दी जातीं तो क्या केरल में कम्युनिस्ट क्रांति हो जाती और अब ये दिखाई जा रही हैं, तो क्या कल या परसों या एक महीने बाद क्रांति हो जाएगी? मूर्खता मुर्दाबाद।
गांधी से राम को भिड़ाऊं- राजेंद्र शर्मा
मोदी के विरोधी क्या अब बिल्कुल बाल की खाल निकालने पर ही नहीं उतर आए हैं? मोदी के राज के ग्यारह साल बाद ही नहीं, आजादी के अठहत्तर साल बाद ही नहीं, गुलामी के एक हजार साल के बाद, पहली बार किसी कानून में राम का नाम आया है। पर इस कानून की आरती उतारने के बजाए, भाई लोग उसके नाम में ही खोट निकालने में लगे हैं। कह रहे हैं कि ये जी राम जी क्या होता है?
माना कि मोदी के चिंतक बहुत अच्छे हैं। और बाकी किसी चीज में हो न हो, योजनाओं के नाम रखने में तो मोदी जी के चिंतकों का कोई जवाब ही नहीं है। यूं नये नाम तो कोई भी रख ले, बस जरा-सा पढ़ा-लिखा होना चाहिए और हां, थोड़ी-बहुत नया सोचने की प्रतिभा भी चाहिए। पर मोदी के चिंतकों का जो स्पेशलाइजेशन नाम रखने में है, वह अद्भुत है। ऐसे नामों की खोज, जिनके शब्दों के प्रथमाक्षरों को जोडऩे पर हमेशा हिंदी/ संस्कृत का कोई शानदार शब्द बनता है; ऐसी प्रतिभा दुनिया में और कहीं नहीं मिलेगी।
बाकी किसी में दुनिया माने न माने, पर नाम के संक्षिप्तीकरण से शानदार नाम बनाने में तो हम, पहले ही विश्व गुरु बन चुके हैं। दूर-दूर तक कहीं कोई कम्पटीशन ही नहीं है। पर इस बार मोदी के साथ चोट हो गयी।
नाम-चिंतकों से तपस्या में जरूर कुछ न कुछ कमी रह गयी। ग्रामीण मजदूरों वाले नये कानून के नाम में राम का नाम तो आ गया, पर वो बात नहीं आयी, जो भगवान का नाम लेने से आती है। जी राम जी ; जरा सोच कर देखिए, क्या मन में भक्ति भाव जगाता है? नहीं ना! उल्टे यह तो सेवक-भाव ही जगाता है। मालिक गद्दी पर बैठे हैं और सेवक आगे हाथ बांधे खड़े हैं — जी मालिक जी! जमींदार तख्त पर बैठकर हुक्का गुड़गुड़ा रहा है, मजदूर सामने हाथ जोड़े खड़ा है — जी मालिक! ये भाषा मोदी के दरबार की हो तो हो, राम जी के दरबार की नहीं है। वहां तो अपने मुंह से खुद को सेवक कहने वाले हनुमान तक की अपनी अलग ही टौर है। वैसे भी ‘जै राम जी की’ तो हमारे यहां न जाने कब से चलन में है और गांव-देहात में तो खासतौर पर, जिसके लिए कानून बन रहा था। कानून बनवाने वाला नया था, कानून नया था, तो क्या भगवान राम को भी नया रूप देने के चक्कर में, दफ्तर का बड़ा बाबू बना देंगे — जी बड़े बाबू जी!
फिर इसकी कोई वजह भी तो होती! जैसे जी राम जी बनाया, वैसे ही क्या जै राम जी नहीं बनाया जा सकता था? अब यह तो मानने वाली बात है ही नहीं कि प्रधानमंत्री कार्यालय के चिंतकों पर ऐसा नाम सोचा ही नहीं गया, जिसका संक्षिप्त रूप जै राम जी होता, जी राम जी नहीं। जी की जगह जै ही तो लाना था। पहले जै लिखते, फिर प्रथमाक्षरों से शब्द बनाते। यही तो करते हैं। इतना तो मुश्किल भी नहीं था और खासतौर पर तब, जब पीएमओ की बड़ी-बड़ी प्रतिभाएं इसी काम में जुटी हों। पर नहीं हुआ। इस तरह एक और मामले में मोदी जी की तपस्या में कुछ कमी रह गयी।
जरूर मोदी के कार्यालय में जुटी प्रतिभाओं ने अपने असली काम में कोताही बरती। लगता है कि मोदी जी के ब्रांड की तरह, उनकी जुटायी प्रतिभाओं में भी कुछ जंग लग गया है। या कहीं ऐसा तो नहीं कि यह भी 2024 के नतीजे वाले धक्के का नतीजा हो? जब मोदी ही में वह बात नहीं रही, उनकी जुटायी प्रतिभाओं के काम में और उनकी योजनाओं के नाम में, वह बात कैसे रहेगी? मोदी ढलान पर, जी राम जी भारी, जै राम जी पर! पहले जय सियाराम का, जय श्रीराम किया। अब न जय श्रीराम और न जै राम जी, अब जी राम जी ; हिंदुओं की आस्था के साथ यह खिलवाड़ कब तक!
पर यह अगर खिलवाड़ है, तो नयी ब्रांडिंग किसे कहेंगे? पर ये मोदी के विरोधी क्या समझेंगे ब्रांडिंग की महत्ता? ये क्या समझेंगे वक्त, वक्त पर ब्रांड के नवीनीकरण की आवश्यकता! खैर जै श्रीराम हों तो और जी राम जी हों तो, सारी सप्लाई तो मोदी के संघ विचार परिवार के ही हाथों में रहनी है। भक्त झख मार के वही माल खरीदेंगे जो वे देंगे, सो विरोधियों की ऐसी आलोचनाओं की मोदी को परवाह नहीं है। उनकी चिंता दूसरी है। ग्रामीण मजदूरों वाले कानून से महात्मा गांधी का नाम हटाया है। राम जी का नाम रखवाया है। क्या हुआ कि गांधी जी, अपने ही ढंग से राम के बहुत बड़े भक्त थे, जो मरे भी, तो उनके अंतिम शब्द थे — हे राम! फिर भी गांधी और राम को भिड़ाया है। यानी चाणक्य नीति का फुल-फुल अनुसरण हो रहा है? फिर भी विरोधी हैं कि गांधी का पक्ष तो ले रहे हैं, पर राम से भिड़ने से बचकर निकलते जा रहे हैं। उल्टे बहुत तो नाम के झगड़े में अटक ही नहीं रहे हैं। जी राम जी को सिर्फ नाम बनाए दे रहे हैं और कानून पर सवाल उठा रहे हैं। जी राम जी का गरीब ग्रामीण मजदूरों के साथ क्या सलूक होगा, जी राम जी गरीब राज्यों के साथ क्या करेगा, जी राम जी धन्नासेठों को और ग्रामीण अमीरों को कैसे खुश करेगा ; ऐसे मोदी के लिए आउट ऑफ कोर्स सवाल उठा रहे हैं। अब ये विरोधी क्या मोदी जी की चाणक्य नीति को ही फेल कराएंगे?
सच पूछिए तो यह विरोधियों का झूठा प्रचार है कि मोदी के विचार परिवार वाले सिर्फ हिंदू-मुसलमान को ही लड़ाते हैं। बेशक, हिंदू-मुसलमान को लड़ाते हैं और जमकर लड़ाते हैं, पर उन्हें ही नहीं लड़ाते हैं। चाणक्य का आइडिया, जिसे बाकी हर चीज की तरह यूरोप वालों ने चुरा लिया था और बाद में अंगरेजों ने ‘फूट डालो और राज करो’ का सूत्र बनाकर हम को ही लौटा दिया था, इतना एक आयामी नहीं हो सकता है। वैसे भी उसके टैम में हमारे यहां मुसलमान तो थे ही नहीं और इसलिए हिंदू भी नहीं थे। पर ‘फूट डालो और राज करो’ का सूत्र था। विचार परिवार ने भी हिंदू-मुसलमान ही नहीं, सब को लड़ाकर देखा है।
नेहरू और पटेल को तो खैर पचहत्तर साल से लड़ा ही रहे हैं। जन गण मन और वंदे मातरम् को भी उतने ही साल से लड़ा रहे हैं। केसरिया ध्वज को तिरंगे से लड़ाया। मनुस्मृति को आंबेडकर के संविधान से भिड़ाया। संस्कृत में रंगी हिंदी को तमिल, मलयालम आदि, आदि के आगे अड़ाया। और अब गांधी को राम जी से लड़ा रहे हैं। पर गांधी हैं कि रिंग में ही नहीं आ रहे हैं।
राम जी कम से कम ऐसा मत होने देना कि तीन कृषि कानूनों की तरह जी राम जी कानून गले की फांसी बन जाए और अवतारी बाबा को तपस्या में कमी रह जाने के लिए, एक बार फिर माफी मांगनी पड़ जाए। देख लेना, अवतार की इज्जत का सवाल है।
