
जब हम अपना कर्तव्य निभाते हैं,
तब थोड़ा सा कष्ट अवश्य होता है,
पर जो कभी पराजय नहीं मानते हैं,
वो हर तकलीफ़ सहन कर लेते हैं।
वो अपने प्रयत्न से ही जीतते भी हैं,
और इन तकलीफ़ों से सीखते भी हैं,
इस तरह उन्हें अनुभव प्राप्त होता है,
और इसी से ज्ञान भी प्राप्त होता है।
वो “हिम्मते मर्दा, मददे ख़ुदा होते हैं”
इस ज्ञान का उन्हें अहंकार नहीं होता,
परन्तु ऐसे अहंकार के दुष्परिणामों
का उन सबको है ज्ञान अवश्य होता।
हमें ‘हिम्मतें मर्दा, मददे खुदा’ बनना,
अपने ज्ञान का अभिमान नहीं करना,
पर अभिमान का ज्ञान अवश्य होना,
जीवन में प्रेम व दया शामिल करना।
ऐसे ही ज्ञान, प्रेम व दया भाव की सेवा,
चिकित्सा जगत से अपेक्षित होती है,
क्रंदन करती आज चिकित्सा सेवा को,
हर सम्बल अवलम्बन की ज़रूरत है।
शिक्षक, चिकित्सक सामाजिक
जीवन के प्रतिनिधि संरक्षक होते हैं,
इन पर सबका जीवन आधारित है,
इनकी सेवा से लोग निरोगी होते हैं।
इनकी उपाधियाँ भी तभी सार्थक हैं,
इनके बर्ताव से रोगी ख़ुश हो जाये,
इनके इलाज से हर बीमारी चुटकी
बजते ही हर रोगी से दूर चली जाये।
इनकी थोड़ी बेरूखी बीमारों के प्रति
एक दर्द भरा अफ़साना बन जाती है,
आदित्य रोग निरोग नहीं हो पाता है,
बीमार की बीमारी गहरा जाती है।
कर्नल आदि शंकर मिश्र, आदित्य
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