(वशिष्ठ सिंह)
🎉 त्योहार आते ही सिर्फ छुट्टियाँ और मेले का आनंद नहीं मिलता था, बल्कि पूरा परिवार एकजुट होकर रिश्तों की मिठास का उत्सव मनाता था। उस दौर में त्योहार परिवारिक मिलन का सबसे बड़ा अवसर होते थे।
👴 बाबा-नाना का आशीर्वाद और बच्चों की चहचहाहट
त्योहार पर जब सभी घरवाले जुटते, तो सबसे पहले बच्चे बाबा और नाना के पास भागते। उनके स्नेहिल हाथ सिर पर फिरते और आशीर्वाद स्वरूप दस पैसा, चवन्नी, अठन्नी या रुपया बच्चों की मुट्ठी में आता। यह सिक्के बच्चों के लिए खजाने जैसे होते थे।
इन पैसों से मेले में खरीदे गए खिलौने, बर्फ़ के गोले या रंगीन गुब्बारे ही मानो सबसे बड़ी संपत्ति लगते थे।
👨👩👧👦 चाचा-चाची और बुआ-मौसी की महफ़िलें
गाँव का आँगन त्योहारों पर रिश्तों की महफ़िल से गुलजार हो जाता।
चाचा-चाची को प्रणाम करना और उनके लाड़-प्यार में डूब जाना,
बुआ का मायके आना और पूरे घर को रौनक से भर देना,
मौसी का मामा के घर आना और बच्चों को झूले या मेले में साथ ले जाना,
यह सब त्योहार की असली पहचान थे। बुआ और भाभियों का आपस में मिलना, हंसी-ठिठोली और ताना-बाना मानो घर की दीवारों तक में गूंज जाता।
👰 नई दुल्हन को देखने की परंपरा
त्योहार के समय अगर परिवार में नई शादी हुई हो तो रिश्तेदार और पड़ोसी खासतौर पर “नई दुल्हन” को देखने जाते। दुल्हन का घूँघट उठाने की झलक पाना बच्चों और औरतों के लिए उतना ही रोमांचक होता जितना मेले का आनंद।
नई दुल्हन को देख कर बुआ या मौसी अक्सर हंसी-मज़ाक करतीं— “अरे, हमारे घर आई तो मानो चाँद उतर आया है!”
🤹 बच्चों के झगड़े और मेल-मिलाप
त्योहार में जितना प्यार और मिठास होता, उतनी ही बच्चों की नोंक-झोंक भी।
कोई भाई अपनी बहन की टॉफी छीन लेता,
कोई चचेरा भाई गुब्बारा फोड़ देता,
तो कभी दो ममेरे-फुफेरे भाई अठन्नी बाँटने को लेकर झगड़ पड़ते।
लेकिन यही झगड़े थोड़ी देर में हंसी-मज़ाक और खेल में बदल जाते। दादी या नानी डाँटकर बच्चों को एक ही थाली में बिठाकर मिठाई खिला देतीं, और सब फिर दोस्त बन जाते।
🚞 वापसी का समय और बिछड़ने का दर्द
त्योहार की छुट्टियाँ जब खत्म होने लगतीं, तो बच्चों का मन उदास हो जाता।
मौसी और बुआ अपने-अपने घर लौटने लगतीं।
मामा, दादा और नाना बच्चों की जेब में आशीर्वाद के रूप में सिक्के रख देते।
छोटे बच्चे रोते-रोते स्टेशन या बस अड्डे तक साथ जाते।
उस समय बिछड़ने का दर्द आँखों में आँसू और मन में अगले त्योहार तक इंतजार की टीस छोड़ जाता।
त्योहारों की इन छुट्टियों में सिर्फ मेले और मिठाइयाँ ही नहीं थीं, बल्कि रिश्तों का अपनापन, बड़ों का आशीर्वाद, बच्चों की मासूम नोंक-झोंक और परिवारिक मिलन की रौनक शामिल थी। यही वजह है कि 80 और 90 के दशक के ये त्योहार आज भी दिल के कोनों में बसे हुए हैं।
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