✍️ नवनीत मिश्र
बिहार में विधानसभा चुनावों दिन प्रतिदिन राजनीतिक माहौल गरमाने लगा है। पटना से लेकर गाँव-गाँव तक सियासी हलचल तेज़ है, मंचों पर भाषणों की गूंज है, और जनता के बीच फिर वही पुराने वादों की फेहरिस्त दोहराई जा रही है। हर दल अपने घोषणापत्र में बिहार को नई दिशा देने, बेरोज़गारी मिटाने और विकास का नया अध्याय लिखने का दावा कर रहा है। परंतु सवाल यह है कि इन दावों में कितनी सच्चाई है और कितने वादे चुनावी हवा के साथ उड़ जाने वाले हैं।
बिहार की राजनीति में वादों की परंपरा कोई नई नहीं है। हर चुनाव में जनता को सुनने को मिलता है। “हर घर को नौकरी”, “हर गाँव को सड़क”, “हर हाथ को काम”। लेकिन जैसे ही चुनावी बयार थमती है, वही वादे सत्ता के गलियारों में खो जाते हैं। घोषणापत्रों में जो चमक दिखती है, वह अक्सर वास्तविकता की धूप में फीकी पड़ जाती है। यही कारण है कि जनता के मन में अब एक अनकहा अविश्वास घर कर गया है।
बिहार के युवा इस अविश्वास के सबसे बड़े शिकार हैं। बेरोज़गारी राज्य की सबसे गंभीर समस्या बनी हुई है। लाखों शिक्षित युवक रोज़गार की तलाश में दिल्ली, मुंबई, सूरत या पंजाब जैसे राज्यों की ओर पलायन को मजबूर हैं। चुनावी मंचों पर हर पार्टी रोजगार के लाखों अवसर देने की घोषणा करती है, लेकिन न तो पर्याप्त उद्योग लग पाते हैं, न शिक्षा और कौशल विकास की योजनाओं को धरातल पर वह रूप मिलता है जिसकी उम्मीद की जाती है। रोजगार सृजन के बजाय सरकारी नौकरियों के खाली पद वर्षों तक भर्ती की प्रतीक्षा में पड़े रहते हैं।
विकास की बात करने वाले नेताओं के भाषणों में आंकड़ों की भरमार होती है, मगर ज़मीनी सच्चाई अक्सर इन आंकड़ों से मेल नहीं खाती। सड़कों, अस्पतालों और शिक्षा संस्थानों की हालत आज भी सुधार की प्रतीक्षा में है। ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाएँ सीमित हैं, किसान बिचौलियों के बीच पिस रहे हैं, और शहरों में बढ़ते प्रदूषण और बेरोज़गारी ने जनजीवन को कठिन बना दिया है।
बिहार की राजनीति की सबसे बड़ी बाधा जातीय समीकरणों में उलझी सोच है। चुनाव आते ही उम्मीदवारों का चयन, नारों का निर्धारण, और गठबंधनों की दिशा, सब कुछ जातीय गणित से तय होता है। इस प्रवृत्ति ने विकास की राजनीति को पीछे धकेल दिया है। जब तक नीतियों का केंद्र समाज की समानता और आर्थिक सशक्तिकरण नहीं बनेगा, तब तक बिहार अपने वास्तविक विकास की राह पर नहीं बढ़ पाएगा।
लोकलुभावन वादे भी चुनावी राजनीति का अहम हिस्सा बन चुके हैं। मुफ्त राशन, गैस सिलेंडर, लैपटॉप, साइकिल या छात्रवृत्ति, ये योजनाएँ सुनने में आकर्षक लगती हैं, परंतु इनकी वित्तीय स्थिरता पर बहुत कम विचार किया जाता है। जब सरकारें इन वादों को पूरा करने के लिए राजकोष पर अतिरिक्त भार डालती हैं, तो इसका असर दीर्घकालिक विकास योजनाओं पर पड़ता है। ऐसी राजनीति जनता को तात्कालिक राहत तो देती है, पर स्थायी समाधान नहीं।
अब वक्त आ गया है कि बिहार की जनता केवल वादों की चमक में न उलझे, बल्कि उनके पीछे छिपी नीयत और नीति की सच्चाई को परखे। लोकतंत्र में सबसे बड़ी शक्ति मतदाता के पास होती है, और जब वह जवाबदेही की मांग करता है, तभी राजनीति अपने असली मायने में जनता की सेवा का माध्यम बनती है। वोट अब केवल नारों पर नहीं, काम और निष्ठा पर पड़ने चाहिए।
बिहार को वादों की नहीं, नीतियों की राजनीति की ज़रूरत है। घोषणाओं से ज़्यादा महत्वपूर्ण उनका क्रियान्वयन है। हर दल को यह समझना होगा कि जनता अब भावनाओं से नहीं, तथ्यों से प्रभावित होती है। चुनावी मंचों पर गूंजने वाले वादों की परीक्षा अब जनता के विवेक से होगी, और यही लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबसूरती है।
बिहार के मतदाताओं के सामने अब दो रास्ते हैं। एक ओर वे वादों के आकर्षण में बह सकते हैं, और दूसरी ओर वे विवेकपूर्ण मतदान कर राज्य की राजनीति को नई दिशा दे सकते हैं। अगर जनता ने विकास, पारदर्शिता और जवाबदेही को प्राथमिकता दी, तो आने वाले वर्षों में बिहार उस स्थिति में पहुंच सकता है, जिसकी कल्पना दशकों से की जा रही है।
हमारा मनना है कि लोकतंत्र में वादा तभी सार्थक है जब उसे नीति, नीयत और परिणाम से जोड़ा जाए। वादों की राजनीति नहीं, नीतियों की राजनीति ही बिहार के भविष्य का आधार बन सकती है।
वादों का मेला, हकीकत से मुँह मोड़ती सियासत
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