डॉ. संदीप पाण्डेय
नर सेवा ही नारायण सेवा है, यह कथन बाबा आमटे के जीवन में केवल विचार नहीं, बल्कि उनका संपूर्ण आचरण था। उन्होंने अपने जीवन का प्रत्येक क्षण कुष्ठ रोगियों और समाज के सबसे उपेक्षित वर्ग की सेवा में समर्पित कर दिया। ऐसे समय में, जब कुष्ठ रोग को सामाजिक अभिशाप माना जाता था, बाबा आमटे ने भय और पूर्वाग्रह की दीवारों को तोड़ते हुए मानवता की सच्ची मिसाल प्रस्तुत की।
बाबा आमटे ने यह सिद्ध किया कि रोग किसी व्यक्ति की पहचान नहीं होता, पहचान उसके भीतर का आत्मसम्मान और श्रम होता है। आनंदवन की स्थापना के माध्यम से उन्होंने सेवा को केवल करुणा तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उसे स्वावलंबन, सम्मान और सामूहिक जीवन से जोड़ा। यहाँ कुष्ठ रोगियों को भी आत्मनिर्भर नागरिक के रूप में जीने का अवसर मिला।
उनकी सेवा दृष्टि भावनात्मक सहानुभूति से आगे बढ़कर सामाजिक परिवर्तन का माध्यम बनी। उन्होंने समाज को यह सोचने पर मजबूर किया कि सबसे कमजोर व्यक्ति के साथ खड़ा होना ही सच्चे राष्ट्र निर्माण की नींव है। पद्म पुरस्कारों से सम्मानित बाबा आमटे ने कभी सम्मान को लक्ष्य नहीं बनाया, बल्कि सेवा को ही अपना धर्म और कर्म माना।
आज के समय में, जब संवेदनाएँ सीमित होती जा रही हैं और आत्मकेंद्रितता बढ़ रही है, बाबा आमटे का जीवन हमें यह सिखाता है कि मानवता की रक्षा केवल कानूनों से नहीं, बल्कि करुणा और कर्म से होती है। उनकी जयंती केवल स्मरण का अवसर नहीं, बल्कि यह संकल्प लेने का दिन है कि हम भी अपने सामर्थ्य के अनुसार समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचने का प्रयास करें।
बाबा आमटे का जीवन संदेश स्पष्ट और प्रेरक हैl जब सेवा संकल्प बन जाए, तब एक अकेला व्यक्ति भी समाज की आत्मा को जागृत कर सकता है। यही उनकी सबसे बड़ी विरासत है और यही उनका अमर योगदान।
