गोंदिया – भारत में जाति व्यवस्था ने भारतीय राजनीति में आज व्यापक रूप ले लिया है, और ये विवादों की सबसे बड़ी जड़ बन गई है। जातिगत पार्टियों की बहस में अब गवर्नेंस की कमी स्पष्ट होती जा रही है। चाहे यूपी हो या बिहार, कास्ट-बेस्ड पोलिटिकल पहचान डेमोक्रेसी के लिए बड़ी भीड़ जुटाती है, लेकिन शासन प्रशासन के लिए जिम्मेदारी निभाना एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। इस इलेक्शन में सभी पोलिटिकल पार्टीज को चुनौती दी जाती है कि वो कास्ट और रिलिजन से ऊपर उठकर काम करें और सबके लिए काम करने का वादा पूरा करें।यूपी में एक बार फिर जाति के नाम पर सियासत हो रही है, लेकिन इस बार स्टाइल एकदम अलग है, हर बार जाति जानकर,जाति पूछकर राजनीतिक दल रणनीति बनाते हैं, लेकिन इस बार मामला उलट है, इस बार तो बवाल इस बात पर है कि यूपी में जाति नहीं बताई जाएगी,ना जातियों के नाम पर रैलियां होंगी,ना जाति से जुड़े नोटिस बोर्ड लगेंगे,ना पुलिस रिकॉर्ड्स में जाति मेंशन होगा, ना ही वाहनों पर जाति लिखकर जोर दिखाया जाएगा,युपी सरकार ने इसको लेकर आदेश जारी कर दिया है,यूपी सरकार को ऐसा करने के लिएइलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा था, हालांकि सरकार ने जो आदेश जारी किया उसमें कुछ चीजें कोर्ट के बताए सुझावों से एक्स्ट्रा भी हैं, दिलचस्प ये है कि कोर्ट का ये आदेश जाति से जुड़ी किसी याचिका को लेकर नहीं आया बल्कि हुआ ये कि इटावा के जसवंत नगर थाने की पुलिस ने 29 अप्रैल, 2023 को एसयूवीं रोकी थी, जिसमें तीन लोग पकड़े गए। पुलिस ने चार्जशीट कोर्ट में पेश की और प्रिक्रिया के होते हुए,16 सितंबर 2025 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक ऐतिहासिक आदेश जारी किया मैं एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र यह मानता हूं कि इसने पूरे देश में नई बहस को जन्म दिया।अदालत ने कहा कि पुलिस दस्तावेजों, एफआईआर, अपराध रजिस्टर और सरकारी अभिलेखों में जाति का उल्लेख करना भारतीय संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। संविधान का अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 15 (भेदभाव के खिलाफ सुरक्षा) सीधे-सीधे जातिगत पहचान पर आधारित किसी भी भेदभाव को निषिद्ध करते हैं।अदालत ने यह स्पष्ट किया कि किसी अपराध की जांच में व्यक्ति की जाति अप्रासंगिक है और जातीय उल्लेख समाज में विभाजन को गहरा करता है। इस आदेश ने जातिवाद पर संस्थागत प्रहार किया और इसे “विकसित भारत 2047” के सपने की दिशा में एक निर्णायक कदम माना गया।इसको सफल बनाना है तो जातिवाद को समाप्त करना ही होगा। न्यायालय ने इसे केवल कानूनी नहीं, बल्कि नैतिक और सामाजिक सुधार का हिस्सा बताया। यदि भारत अगले 22 वर्षों में जाति-मुक्त समाज बना लेता है, तो दुनियाँ के सामने यह सबसे बड़ा लोकतांत्रिक प्रयोग होगा।इस आदेश में कहा गया है कि एससी-एसटी एक्ट जैसे मामले इस आदेश से प्रभावी नहीं होंगे।हाईकोर्ट के आदेश के सिर्फ एक हफ्ते के भीतर 23 सितंबर 2025 को यूपी सरकार ने त्वरित कार्रवाई करते हुए शासनादेश जारी किया। इस आदेश के तहत निर्देश दिया गया कि अब से पुलिस अभिलेखों,सरकारी रजिस्टरों और प्रशासनिक फाइलों में जाति का उल्लेख नहीं किया जाएगा। साथ ही, राज्य सरकार ने सभी विभागों को यह भी आदेश दिया कि जातीय पहचान को दर्ज करने की प्रथा समाप्त की जाए।यूपी सरकार ने इस कदम को सामाजिक समरसता और “सबका साथ, सबका विकास” की दिशा में ऐतिहासिक पहल बताया। इसे जातिवाद समाप्त करने कीराजनीतिक इच्छाशक्ति का उदाहरण माना गया।इसलिए आज हम मीडिया में उपलब्ध जानकारी के सहयोग से इस आर्टिकल के माध्यम से चर्चा करेंगेजाति-मुक्त भारत की ओर इलाहाबाद हाईकोर्ट क़ा ऐतिहासिक आदेश और यूपी सरकार की पहल।
साथियों बात अगर हम भारत के लिए यूपी मॉडल,एक राष्ट्रीय प्रयोगशाला होने की करें तो यूपी,जो भारत का सबसे बड़ा राज्य है, अक्सर राजनीतिक और सामाजिक प्रयोगों की प्रयोगशाला माना जाता है। यदि यहाँ जातीय उल्लेख को समाप्त करने की नीति सफल होती है, तो यह अन्य राज्यों के लिए भी मॉडल बन सकती है। 2047 तक विकसित भारत के विजन को सफल बनाने के लिए इस पहल को “मील का पत्थर” कहा जा रहा है। सामाजिक वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि जाति को प्रशासनिक दस्तावेजों से हटाया गया तो धीरे-धीरे यह चुनावी राजनीति और सामाजिक व्यवहार से भी कमज़ोर होगी।जातीय राजनीति पर विराम लगेगा और लोकतंत्र की नई दिशा मिलेगी, भारत की राजनीति लंबे समय से जातीय समीकरणों पर आधारित रही है। प्रत्याशी चयन, टिकट वितरण, गठबंधन और चुनावी रणनीति सब जाति के अंकगणित पर टिकी रहती हैं। यदि प्रशासनिक स्तरपर जाति का उल्लेख ही नहीं होगा, तो धीरे-धीरे जातीय पहचान की राजनीतिक महत्ता घटेगी। इससे लोकतंत्र अधिक विचार-आधारित और विकास- आधारित हो सकेगा। जातिवाद पर यह प्रहार भारतीय लोकतंत्र को उसकी मूल आत्मा,”एक व्यक्ति, एक वोट”,के असली स्वरूप के बहुत सटीक करीब ले जाएगा।
साथियों बात अगर हम क्या भारत में जाति-मुक्त समाज संभव है? इस प्रश्नों को समझने की करें तो,सवाल उठता है कि क्या भारत जैसा विशाल और विविधतापूर्ण देश जाति-मुक्त समाज बना सकता है? उत्तर यह है कि कठिन जरूर है, लेकिन असंभव नहीं। जाति-मुक्त समाज बनने से निम्नलिखित फायदे होंगे(1) सामाजिक समानता- कोई ऊँच-नीच नहीं, सबको समान सम्मान। (2) आर्थिक अवसरों की समानता-रोजगार और शिक्षा में अवसर जाति से नहीं, क्षमता से तय होंगे। (3) राजनीतिक स्थिरता-जातीय संघर्ष और वोट-बैंक कीराजनीति कम होगी।(4)राष्ट्रीय एकता- जाति -धर्म की दीवारें गिरने से भारत की वैश्विक छवि मजबूत होगी।जाति-आधारित राजनीति खत्म करने की आवश्यकता- जाति-आधारित राजनीति ने भारत में कई बार समाज को विभाजित किया है। यदि राजनीतिक पार्टियाँ जातीय समीकरणों पर टिकट देना बंद करें और केवल योग्यता, सेवा और विकास के एजेंडे पर चुनाव लड़ें तो लोगों में आत्मविश्वास बढ़ेगा। समाज में झगड़े-झमेले घटेंगे और राष्ट्रीय ऊर्जा सकारात्मक कार्यों में तेज़ी से लगेगी।
साथियों बात अगर हम एमवाय और पीडीए की राजनीति विभाजन की जड़ और लोकतंत्र में आंकड़ों के खेल को समझने की करें तो, भारतीय राजनीति में एमवाय (मुस्लिम-यादव) और पीडीए (पिछड़ा-दलित- अल्पसंख्यक) समीकरणों ने दशकों तक पार्टियों की चुनावी रणनीति तय की। इससे जाति और धर्म को एक स्थायी राजनीतिक औजार की तरह इस्तेमाल किया गया। यदि जातीय व्यवस्था से भारत को मुक्ति मिलती है, तो ये समीकरण अप्रासंगिक हो जाएंगे और राजनीति असली मुद्दों, शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, सुरक्षा,पर केंद्रित होगी।लोकतंत्र में आंकड़ों का खेल- जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा और समाज़ क़ा वेटज़-भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में अक्सर चुनावों को जातीय, धार्मिक और क्षेत्रीय आधार पर बांट दिया जाता है। किसी समुदाय की जनसंख्या का “वेटेज” जितना अधिक होता है, राजनीतिक पार्टियाँ उतनी ही उसकी परवाह करती हैं। यही कारण है कि हर पार्टी का चुनावी रोडमैप जातीय समीकरणों पर आधारित होता है। लेकिन यदि जातीय उल्लेख बंद हो जाएगा, तो धीरे-धीरे यह वेटेज अप्रासंगिक होगा और लोकतंत्र वास्तविक रूप से जन-केन्द्रित बनेगा।
साथियों बातें अगर हम जाति समीकरणों के इतिहास को समझने की करें तो,1950 से 1990 तक जातीय राजनीति का विकास भारत की आज़ादी के बाद राजनीति में जातीय समीकरण धीरे-धीरे हावी होते गए।(1)1950-1970-इस दौर में ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम राजनीति के केंद्र में रहे। कांग्रेस ने इन्हें संतुलित करने की कोशिश की।(2)1974-पिछड़ी जातियों के नेताओं का उदय शुरू हुआ, जिसने राष्ट्रीय राजनीति का समीकरण बदल दिया। (3)1990-मंडल आयोग, पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के फैसले ने जातीय राजनीति को स्थायी रूप से स्थापित कर दिया। इसके बाद से हर चुनाव जातीय समीकरणों के इर्द-गिर्द घूमने लगा।
साथियों बात अगर हम आरएसएस प्रमुख और प्रधानमंत्री के बयान को समझने की करें तो 28 अगस्त 2025 को आरएसएस प्रमुख ने कहा था कि “जाति अब समाज को बांटने का औजार नहीं रहनी चाहिए, यह केवल एक सामाजिक बुराई है जिसे समाप्त करना ही होगा।” यह बयान समाज सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण संकेत माना गया। 30 नवंबर 2023 को प्रधानमंत्री ने चार “जातियों” का उल्लेख किया था, गरीब, युवा, महिला और किसान। उन्होंने कहा था कि भारत की राजनीति को इन्हीं चार वर्गों के कल्याण पर केंद्रित होना चाहिए। यह बयान पारंपरिक जातीयराजनीति से आगे बढ़कर विकास- केंद्रित राजनीति की ओर इशारा करता है।एक टैक्स, एक चुनाव, एक जाति, राष्ट्रीय एकता की दिशा भारत में पहले ही एक टैक्स (जीएसटी) और एक देश, एक चुनाव जैसी योजनाओं पर काम हो रहा है। अब यदि “एक जाति” यानी जातिवाद-मुक्त समाज की अवधारणा को साकार किया जाए तो यह राष्ट्रीय एकता की दिशा में क्रांतिकारी कदम होगा। इससे लोकतंत्र की जड़ें और गहरी होंगी और सामाजिक समरसता बढ़ेगी।
अतःअगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर इसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि जाति-मुक्त भारत, विकसित भारत-इलाहाबाद हाईकोर्ट का आदेश और यूपी सरकार का त्वरित शासनादेश केवल प्रशासनिक सुधार नहीं, बल्कि सामाजिक क्रांति का संकेत है। यदि पूरे भारत में इसे अपनाया गया तो जाति-आधारितराजनीति कमजोर होगी, समाज में समानता बढ़ेगी और भारत 2047 तक विकसित राष्ट्र बनने के अपने लक्ष्य को हासिल कर पाएगा।यह वह रास्ता है जिससे भारत दुनियाँ को दिखा सकता है कि लोकतंत्र केवल राजनीतिक व्यवस्था नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और समानता कावास्तविक आधार है।
-संकलनकर्ता लेखक – क़र विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार अंतरराष्ट्रीय लेखक चिंतक कवि संगीत माध्यमा सीए(एटीसी) एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र 9226229318
