नई दिल्ली,(राष्ट्र की परम्परा डेस्क) सुप्रीम कोर्ट ने विवाह और पारिवारिक जीवन पर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा है कि विवाह के बाद पति या पत्नी में से कोई भी अपने जीवनसाथी से पूर्ण स्वतंत्रता का दावा नहीं कर सकता। न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने स्पष्ट किया कि विवाह का अर्थ है दो आत्माओं और दो व्यक्तियों का मिलन, जिसमें भावनात्मक और सामाजिक रूप से एक-दूसरे पर निर्भरता स्वाभाविक है।पीठ ने कहा, “जो लोग एक-दूसरे पर निर्भर नहीं रहना चाहते, उन्हें विवाह बंधन में बंधना ही नहीं चाहिए।यह टिप्पणियाँ एक ऐसे मामले की सुनवाई के दौरान आईं, जिसमें सिंगापुर में कार्यरत पति और हैदराबाद में रह रही पत्नी अलग-अलग रहते हैं। दंपति के दो छोटे बच्चे हैं, जिनकी स्थिति पर अदालत ने गंभीर चिंता जताई। अदालत ने कहा कि बच्चों को टूटे हुए घर का दर्द क्यों झेलना पड़े।पत्नी ने अदालत के समक्ष यह दलील दी कि पति केवल बच्चों की हिरासत और मुलाक़ात को लेकर रुचि दिखा रहा है, सुलह की कोई कोशिश नहीं कर रहा। उसने यह भी कहा कि उसे गुज़ारा भत्ता नहीं मिला है, जिसके कारण अकेली माँ के रूप में उसका जीवन कठिन हो गया है।सुप्रीम कोर्ट ने पत्नी से पूछा कि वह सिंगापुर क्यों नहीं लौट सकती, जहाँ कभी दोनों की अच्छी नौकरियाँ थीं। इस पर पत्नी ने जवाब दिया कि पति के पूर्व कार्यों की वजह से अब उसके लिए वहाँ लौटना मुश्किल हो गया है। उसने यह भी कहा कि उसे अपनी आजीविका के लिए काम करना ज़रूरी है।जब पत्नी ने यह दावा किया कि वह किसी पर निर्भर नहीं रहना चाहती, तो न्यायमूर्ति नागरत्ना ने तुरंत कहा, “आप ऐसा नहीं कह सकतीं। शादी के बाद व्यक्ति आर्थिक रूप से नहीं तो भावनात्मक रूप से अपने जीवनसाथी पर निर्भर होता ही है। यदि आप किसी पर निर्भर नहीं रहना चाहती थीं, तो आपको विवाह ही क्यों करना था?”