
नवनीत मिश्र
आपातकाल के 50 साल पर विशेष:-
25 जून 1975 की रात भारतीय इतिहास की वो तारीख बन गई, जिसने लोकतंत्र की बुनियाद को हिला कर रख दिया। देश सो रहा था, लेकिन सत्ता के गलियारों में ऐसा फैसला लिया जा रहा था, जो आने वाले दो वर्षों तक करोड़ों भारतीयों की जिंदगी को बदल देगा। उस रात प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू करने का आदेश दिया — एक ऐसा कदम जिसे आज भी भारत के सबसे विवादास्पद राजनीतिक निर्णयों में गिना जाता है।
संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल तब घोषित किया जाता है जब देश की एकता, अखंडता या सुरक्षा को गंभीर खतरा हो। लेकिन 1975 का आपातकाल सिर्फ संविधानिक जरूरत नहीं, बल्कि राजनीतिक दबाव की प्रतिक्रिया था। इससे कुछ दिन पहले, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को नियमविरुद्ध करार दिया था। यह फैसला उनके प्रधानमंत्री बने रहने पर प्रश्नचिह्न बन गया। जनता में असंतोष पहले से था, और जेपी आंदोलन पूरे देश में उबाल पर था। इन स्थितियों से घिरकर सरकार ने लोकतंत्र पर ताला लगा दिया।
आपातकाल लागू होते ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, प्रेस की आज़ादी और मौलिक अधिकारों को पूरी तरह कुचल दिया गया। लाखों लोगों की आवाज़ को बंद कर दिया गया—पत्रकारों को डराया गया, अखबारों पर सेंसर लगा, और विरोध करने वालों को रातोंरात हिरासत में ले लिया गया। कई राज्यों में जबरन नसबंदी अभियान चलाया गया, जिसमें आम नागरिकों को बिना उनकी सहमति के ऑपरेशन झेलना पड़ा। यह सब कुछ “राष्ट्रीय हित” के नाम पर हुआ।
इतना ही नहीं, 42वां संविधान संशोधन पारित कर केंद्र सरकार को ऐसी ताकतें दे दी गईं, जिनका इस्तेमाल किसी भी विरोध को दबाने के लिए किया जा सकता था। यह संशोधन लोकतंत्र की आत्मा पर चोट था, जिसे जानकारों ने ‘मिनी संविधान’ कहा।
लेकिन हर अंधेरा हमेशा के लिए नहीं रहता। मार्च 1977 में जब चुनाव हुए, तो जनता ने लोकतंत्र का असली मतलब दिखा दिया। सत्ता परिवर्तन हुआ, कांग्रेस की ऐतिहासिक हार हुई, और जनता पार्टी ने सरकार बनाई। यह साबित हुआ कि भारत का लोकतंत्र भले ही झुक सकता है, लेकिन टूटता नहीं।
आपातकाल भारत के लिए एक चेतावनी है—सत्ता जब बेलगाम हो जाती है, तो संविधान की सीमाएं भी कमजोर पड़ सकती हैं। लेकिन जागरूक नागरिक, स्वतंत्र प्रेस और सशक्त न्यायपालिका लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत होते हैं।
आज जब 25 जून की बात होती है, तो यह सिर्फ इतिहास नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक चेतना का पुनः स्मरण होता है। यह दिन हमें याद दिलाता है कि आज जो स्वतंत्रता हमें सहज लगती है, वह कभी एक कलम की स्याही से छिन गई थी। इसलिए इस स्वतंत्रता की रक्षा हम सभी की साझा जिम्मेदारी है।
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