माधवपुर/बिहार (राष्ट्र की परम्परा डेस्क)। यह कहानी है रघुवीर नाम के एक मजदूर की, जो ज़िंदगी के उतार-चढ़ाव झेलकर अपने गाँव लौट आया। कभी दिल्ली की इमारतों में पसीना बहाने वाला रघुवीर, अब अपने गाँव माधवपुर में नई उम्मीदों की रोशनी जगा रहा है।
शाम के वक्त चलती ट्रेन में बैठा रघुवीर अपनी झोली कसकर पकड़े हुए था—पचपन की उम्र में टूटी उम्मीदों और अधूरी कहानियों के साथ। वहीं ट्रेन के दूसरे कोने में बैठी थी नेहा, दिल्ली विश्वविद्यालय की समाजशास्त्र की छात्रा, जो “ग्राम्य पलायन और सामाजिक विघटन” पर रिसर्च कर रही थी।
ट्रेन के सफर में दोनों की बातचीत ने कहानी का मोड़ बदल दिया। जब रघुवीर ने कहा—
“उस खबर में मेरा नाम नहीं था, इसलिए ज़िंदा हूँ,”
नेहा को एहसास हुआ कि आंकड़े सिर्फ़ नंबर नहीं होते, बल्कि किसी की सांसें और संघर्ष की गवाही होते हैं।
गाँव लौटा तो बदल चुका था सब कुछ
माधवपुर लौटने पर रघुवीर ने पाया कि गाँव अब पहले जैसा नहीं रहा—
कच्चे घरों की जगह पक्के मकान थे, मगर उनमें ताले ज़्यादा और लोग कम थे। खेत बटाईदारों के हवाले थे, बच्चे मोबाइल में गुम, और बूढ़े इंतज़ार में कि कोई लौट आए।
उधर नेहा अपने शोध के लिए माधवपुर पहुँची और रघुवीर से मिली। बातचीत में रघुवीर ने कहा—
“गाँव अब स्टेशन जैसा हो गया है—जहाँ से सब निकलते हैं, पर कोई लौटता नहीं।”
नेहा इस सच्चाई से गहराई तक प्रभावित हुई और तय किया कि वह सिर्फ़ शोध नहीं, परिवर्तन भी लाएगी।
नेहा और रघुवीर ने बदली गाँव की कहानी
नेहा ने रघुवीर की मदद से बच्चों के लिए “शाम का अध्ययन केंद्र” शुरू किया, जहाँ वह शिक्षा के साथ गाँव के इतिहास की कहानियाँ सुनाती।
रघुवीर बच्चों को जीवन के अनुभव साझा करता, शहर और गाँव दोनों की हकीकत बताता।
धीरे-धीरे गाँव में बदलाव आने लगा—
महिलाएँ “गाँव रोजगार समिति” के तहत बांस की टोकरियाँ बनाने लगीं, कुछ युवा खेती की ओर लौटे। माधवपुर में नई उम्मीद की फसल उगने लगी।
“आख़िरी स्टेशन” से नई शुरुआत तक
जब नेहा का शोध पूरा हुआ और जाने का वक्त आया, उसने रघुवीर से पूछा—
“काका, अब क्या सोचते हैं, माधवपुर आपका आख़िरी स्टेशन है?”
रघुवीर मुस्कुराया—
“हाँ बिटिया, आख़िरी स्टेशन तो यही है… पर अब यहाँ रुकने का मतलब अंत नहीं, नई शुरुआत है। जब तक आदमी दूसरों के लिए कुछ कर सकता है, तब तक उसकी यात्रा जारी रहती है।”
नेहा की आँखों में आँसू थे, मगर दिल में गर्व और मुस्कान थी। ट्रेन आगे बढ़ी, और रघुवीर अब अकेला नहीं रहा—पूरे गाँव का ‘रघु काका’ बन गया।
लेखक: सुनीता कुमारी, बिहार
