Tuesday, October 28, 2025
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वह दिन जब देश-भक्त और साहित्य-संस्कारी हमसे विदा लौटे…

23 अक्टूबर के दिन इतिहास में कई ऐसे व्यक्तित्वों ने अंतिम श्वास ली, जिनका योगदान भारतीय संस्कृति, साहित्य एवं राष्ट्र-सेवा में आत्म-दत्त रहा। नीचे उन महान आत्माओं पर संक्षिप्त लेकिन गहन प्रकाश डाला गया है।

  1. मीनू मुमताज़ (26 अप्रैल 1942 – 23 अक्टूबर 2021)
    मुम्बई (महाराष्ट्र) में जन्मी मीनू मुमताज़, जिनका जन्म नाम मलिकुन्निसा अली था, हॉलीवुड या फिल्म-प्रशासकीय विरासत नहीं, बल्कि हिन्दी सिनेमा के स्वर्णयुग का अद्भुत अंग थीं।
    उनका परिवार फिल्म-अभिनय और नृत्य के पार्श्व से था—पिता मुमताज़ अली नर्तक और अभिनेता थे, और भाई मशहूर हास्य अभिनेता मेहमूद थे।
    शिक्षा-विस्तार की बहुत सी जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन बचपन से ही परिवार की आर्थिक चुनौतियों के कारण मीनू ने अभिनय तथा नृत्य में हाथ आजमाया।
    उन्होंने 1950-60 के दशक में हिन्दी फिल्मों में नर्तकी तथा चरित्र-अभिनेत्री के रूप में काम किया—फ़िल्में जैसे डो रोटी (1957), नया दौर (1957) और C.I.D. (1956) आदि उनके करियर को चिन्हित करती हैं।
    उनकी नृत्य-शैली में सहजता, उनकी अभिव्यक्ति में सादगी थी; उन्होंने प्रमुख काम किया और हिन्दी फिल्म इतिहास में अपनी एक विशिष्ट जगह बनाई।
    23 अक्टूबर 2021 को टोरंटो, कनाडा में उन्होंने परलोक को प्रस्थान किया, लेकिन उनकी स्मृति आज भी जीवंत है।
  2. ये भी पढ़ें –23 अक्टूबर की प्रतिभाएँ: समय-साथी जन्मदिन की कहानी
  3. सुनील गंगोपाध्याय (7 सितंबर 1934 – 23 अक्टूबर 2012)
    वर्तमान बांग्लादेश के फ़रीदपुर के गाँव माइचपारा जिले में जन्मे, सुनील गंगोपाध्याय ने बंगाली साहित्य को एक नए आयाम तक पहुँचाया।
    उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में मास्टर्स किया।
    उनका साहित्य­कर्म बहुआयामी रहा—कविता, उपन्यास, लघु-कथा, नाटक, बच्चों के साहित्य एवं यात्रा-वृत्तांत तक। उन्हें एक लेखक-कवीनिष्ठा के रूप में देखा जाता है, जिनकी लेखनी ने छायावाद के बाद बंगाली कविता-कला को नए जोड़ दिए।
    वह 23 अक्टूबर 2012 को दक्षिण कोलकाता स्थित आवास पर कार्डियक अटैक के कारण निधन हो गया।
    उनका साहित्य आज भी बंगाली-भाषी पाठकों के दिलों में जागता है—उनके द्वारा रचित कथाएँ और उपन्यास युवा-वर्ग को प्रेरित करते हैं।
  4. सुबेदार जोगिन्दर सिंह PVC (26 सितंबर 1921 – 23 अक्टूबर 1962)
    मोगा ज़िला, पंजाब के महला कलां गाँव में जन्मे जोगिन्दर सिंह ने भारत-चीन युद्ध (1962) के समय अदम्य वीरता का प्रदर्शन किया।
    उन्होंने 1936 में अंग्रेज़ भारत सेना में भर्ती होकर 1 सिख रेजिमेंट में सेवा शुरू की।
    20 अक्टूबर 1962 को बुम ला धुरी पर तैनात उनकी पलटन को 23 अक्टूबर को तीन तरंगों में चीनी सेना ने भारी हमले से घेर लिया। शहीद जोगिन्दर सिंह ने घायल अवस्था में भी आख़िरी तक लड़ते हुए तेवर नहीं छोड़ा।
    उनके इस अद्वितीय साहस के लिए उन्हें मरणोपरांत भारत का सर्वोच्च युद्ध-सम्मान परमवीर चक्र प्रदान किया गया।
    उनकी कहानी हमें राष्ट्र-सेवा, समर्पण और निडरता का पाठ पढ़ाती है।
  5. नेली सेनगुप्ता († 1973)
    1973 में इस महिला क्रांतिकारी का निधन हुआ था। उनकी जन्म-स्थान, शिक्षा-वृत्तांत एवं विस्तृत योगदान-विवरण उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन इस तथ्य से इनकार नहीं कि उन्होंने अपने समय में संघर्ष-मार्ग पर कदम रखा था और एक नारी के नाते-ऊपर उठकर क्रांति-प्रवाह में शामिल हुई थीं।
    उनकी स्मृति आज़ादी-प्रेम, साहस और सामाजिक चेतना का प्रतीक बनी हुई है।
  6. भोलाशंकर व्यास († 2005)
    “काशी” अर्थात् वाराणसी में साहित्य-प्रसार तथा संस्कृतिकर्म में सक्रिय भोलाशंकर व्यास हिंदी-साहित्यकार एवं चिंतक थे। हालांकि उनके जन्म-स्थान एवं शिक्षा-विवरण का सटीक वृत्तांत उपलब्ध नहीं है, परंतु यह स्पष्ट है कि उन्होंने बनारस की सांस्कृतिक वध्य-भूमि में अपनी लेखनी एवं चिंतन-भूमि से अमिट प्रभाव छोड़ा।
    2005 में उनका निधन हुआ। उनकी लेखनी ने स्थानीय-साहित्य, भाषा-संस्कार एवं सामाजिक-संसर्ग को समृद्ध किया।
  7. तुलसीदास (१५वीं-१६वीं सदी)
  8. भाषा-साहित्य के महान कवि तुलसीदास ने धर्म-साधना, भक्ति-प्रवाह तथा समाज-चिंतन को एक साथ बांधा। हालांकि वे आमतौर पर ३० जुलाई १६२३ को निधन के रूप में दर्ज हैं।
  9. यह दिन २३ अक्टूबर नहीं है, पर भावनात्मक रूप से हमें याद दिलाता है—समय-ग्रह जितना भी बदल जाए, महान विभूतियों का योगदान अमिट रहता है।
  10. कृपया इस पंक्ति को एक शोक-स्वीकृति के रूप में पढ़ें, जो इन वीर-देवताओं एवं साहित्य-प्रेरकों के प्रति हमारी श्रद्धा दर्शाती है।
  11. 23 अक्टूबर को हम न केवल इन विभूतियों को याद करते हैं, बल्कि उनके द्वारा दी गई सीख—साहस + समर्पण + सृजन-भावना—को आत्मसात करने का अवसर पाते हैं। चाहे फिल्म-जगत की मीनू मुमताज़ हों, बंगाली साहित्य के सुनील गंगोपाध्याय, युद्धभूमि के सिंह-योद्धा जोगिन्दर सिंह हों, या सामाजिक-क्रांति में भाग लेने वाली नेली सेनगुप्ता और संस्कृतिकर्मी भोलाशंकर व्यास—हर एक ने अपने-अपने क्षेत्र में प्रतिमान स्थापित किया।
  12. उनके जीवन-कर्म की गाथाएँ हमें प्रेरणा देती हैं कि हम अपनी आंतरिक क्षमता को पहचानें, समाज-सेवा को महत्व दें, और हर दिन को कुछ बेहतर बनाने की दिशा में उठें।
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