
✍️नवनीत मिश्र
शिक्षक का स्थान समाज में हमेशा सबसे ऊंचा रहा है। वह केवल पढ़ाने वाला व्यक्ति नहीं होता, बल्कि विद्यार्थियों के भविष्य और राष्ट्र की दिशा तय करने वाला मार्गदर्शक होता है। अपने व्यक्तित्व, आचरण और विचारों के माध्यम से शिक्षक विद्यार्थियों को ज्ञान ही नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला, संस्कार और जिम्मेदारी का बोध भी कराता है। यही कारण है कि शिक्षक को समाज का पथप्रदर्शक और राष्ट्र का निर्माता कहा गया है।
भारत सदियों से विद्या और ज्ञान की धरती रहा है। यहां के ऋषि और आचार्य न केवल देश, बल्कि पूरी दुनिया के लिए प्रेरणा बने। तक्षशिला और नालंदा जैसे प्राचीन विश्वविद्यालयों ने अपने अनुसंधान और शिक्षण परंपरा से विश्व को शिक्षा का उजाला दिया। गणित, साहित्य, विज्ञान और दर्शन जैसे विषयों में भारतीय मनीषियों की उपलब्धियों ने मानव सभ्यता को नई दिशा प्रदान की। इस गौरवशाली परंपरा के कारण भारत को विश्व गुरु की संज्ञा मिली।
आज भले ही शिक्षा का स्वरूप बदल गया हो, लेकिन शिक्षक की भूमिका पहले जैसी ही महत्वपूर्ण बनी हुई है। तकनीक और वैश्वीकरण ने नई चुनौतियां और अवसर दोनों दिए हैं। ऐसे समय में शिक्षक केवल पाठ्यक्रम तक सीमित नहीं रहते, बल्कि विद्यार्थियों के व्यक्तित्व, दृष्टिकोण और संवेदनाओं को भी गढ़ते हैं। नए शिक्षकों का उत्साह जहां संस्थानों में नई ऊर्जा भरता है, वहीं वरिष्ठ शिक्षकों का अनुभव उस ऊर्जा को स्थिरता और गहराई देता है।
भारत में शिक्षक दिवस मनाने की शुरुआत 1962 में हुई। यह परंपरा महान दार्शनिक और पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस से जुड़ी है। उनका विचार था कि यदि इस दिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाए, तो यह शिक्षकों के सम्मान का सच्चा प्रतीक होगा। तभी से 5 सितम्बर का दिन पूरे देश में शिक्षकों के प्रति कृतज्ञता और आभार प्रकट करने का अवसर बन गया है।
शिक्षक का योगदान विद्यालय की चारदीवारी तक सीमित नहीं है। वह समाज में ज्ञान, अनुशासन, संस्कृति और नैतिकता की नींव रखता है। प्राचीन गुरु-शिष्य परंपरा से लेकर आधुनिक शिक्षा व्यवस्था तक, हर युग में शिक्षक ने राष्ट्र निर्माण की जिम्मेदारी निभाई है। आज समय की मांग है कि हम अपने शिक्षकों का सम्मान करें, उनके मार्गदर्शन को आत्मसात करें और उनके बताए रास्ते पर चलकर ज्ञान और मूल्यों से समृद्ध समाज का निर्माण करें।