October 9, 2024

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नाथपंथ ने समन्वय, समता और समरसता पर किया है गंभीर कार्य: प्रो. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी

संगोष्ठी का समापन नही, समरसता का नया आगाज है यह संगोष्ठी: प्रो. पूनम टंडन

गोरखपुर (राष्ट्र की परम्परा)। दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय व हिंदुस्तानी अकादमी, प्रयागराज के संयुक्त तत्वावधान में नाथ पंथ पर आयोजित दो दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का विचारोत्तेजक समापन हुआ। समापन समारोह की अध्यक्षता करते हुए कुलपति प्रो. पूनम टंडन ने कहा कि यह संगोष्ठी का समापन किन्तु समरसता का आगाज है। इस संगोष्ठी के माध्यम से प्रज्वलित समरसता की मशाल अनवरत समाज को प्रेरित व प्रकाशित करती रहेगी। हमें अपने लगभग ढाई लाख विद्यार्थियों के बीच नाथ पंथ के समरसता पुंज को लेकर जाना होगा। इसी के माध्यम से हम करोड़ों परिवारों तक पहुंचकर समरसता की जागृत लौ जला सकेंगे। इससे देश को बेहतरीन व समरस नागरिक समाज मिल सकेगा, जो विकसित भारत की संकल्पना को असल मायने में साकार करेगा।
उन्होंने कहा कि इस संगोष्ठी से हमें जो मॉडल मिला है उसे जीवन में हम उतारे वह दूसरों को भी जोड़ें, तभी संगोष्ठी सफल मानी जाएगी।
समारोह के मुख्य अतिथि पद्मश्री प्रो. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने कहा कि समाज एक अमूर्त शब्द है। हर व्यक्ति की वेदनाएं अलग होती हैं। सारा संसार अपनी अपनी आग में जल रहा है। विषम ताप से विश्व विपुल संत्रस्त है। संत, महात्मा, ऋषि नैतिक आधार पर ही समाज को समरस बनाते हैं।
मनुष्य का मन ही सुख व दुख का कारण है। हर मनुष्य का मन एक सा नहीं हो सकता। साधु-संत विचारों के माध्यम से मनुष्य के मन की दुविधा दूर कर, उन्हें समरस बनाने की कोशिश करते हैं।
उन्होंने पीतांबर दत्त बडथ्वाल का संदर्भ लेते हुए कहा कि शंकराचार्य से लेकर भक्ति काल के बीच 350 वर्ष का सबसे तेजस्वी व प्रतापी व्यक्तित्व गुरु गोरखनाथ का है। बहुत बड़ा संगठन करता भी माना गया है आज देश व दुनियां के कोने-कोने में उनसे संबंधित जगह व चिन्हो का मिलना उनके इसी प्रभाव का परिणाम है। उन्होंने कहा कि गुरु गोरखनाथ न होते तो भारत की पूरी संत परंपरा न होती।
उन्होंने कहा कि गुरु गोरखनाथ ने अपने पूर्व परंपरा को स्वीकार करते हुए अपने ढंग से सहज करने की कोशिश की। उन्होंने नाथ जोगियो के लिए आचार की कड़ी संहिता लागू की। चरित्र की दृढ़ता पर जोर दिया और गुरु को सर्वोपरि महत्व दिया। गोरखनाथ के चिंतन का व्यावहारिक रूप हमारी संत परंपरा में देखने को मिलता है।
उन्होंने कहा कि गुरु गोरखनाथ का समय बौद्ध, जैन, शैव, शाक्त आदि में गहरे मतांतर का समय था। ऐसी स्थिति में उन्होंने प्रतिद्वंदिता, धार्मिक उथल-पुथल इस्लाम का प्रवेश, रूढ़ियों में जकड़े लोग, छुआछूत, जाति-पाति को मिटाकर समाज को समरस किया।
उन्होंने कहा कि हिंदू धर्म की बड़ी विशेषता है विचार करने की छूट। इसीलिए इसका नाम सनातन है। यहां जब विचारों में जाता या आडंबर आता है उसे ऐसे समय में धर्म में विचार करने की छूट है। नाथ पंथ ने समन्वय, समता, समरसता का अपने समय में गंभीर प्रयास किया। गुरु गोरखनाथ का समय राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक आदि दृष्टि से बहुत ही विषम समय था। गुरु गोरखनाथ व नाथ पंथ ने इसे समरस बनाने की दिशा में बहुत बड़ा काम किया।
जननायक चंद्रशेखर विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर संजीत गुप्ता ने कहा कि समरस समाज में मनुष्य व मनुष्यता का महत्व होता है। धर्म और उसपर आधारित नीतियों पर चलकर ही समरस समाज का निर्माण हो सकता है। इसके लिए परस्पर अनुकूलता और सहयोग का भाव होना चाहिए। समाज की प्रत्येक इकाई उसी प्रकार महत्वपूर्ण है, जैसे शरीर का प्रत्येक अंग। हर व्यक्ति महत्वपूर्ण है, इस भाव के आने से समरसता वास्तविक रूप में सामने आयेगी।
उन्होंने कहा कि पूज्य महंत दिग्विजय नाथ जी ने समाज को समरस बनाने में शिक्षा को महत्वपूर्ण मानते हुए उस दिशा में गंभीर कार्य किया। उन्होंने समरसता में शिक्षा के महत्व को पहचाना था। पूज्य महंत अवैद्यनाथ ने समरसता के महत्व को स्वीकारा और सार्वजनिक जीवन में इसे महत्व दिया। इसके साथ ही उन्होंने कहा नाथ पंथ धैर्य, साहस, समर्पण, त्याग और दृढ़ता का प्रतीक है। इसी के आधार पर नाथ पंथ ने समाज का मार्गदर्शन किया।
समापन समारोह के विशिष्ट अतिथि प्रो. चितरंजन मिश्र ने संबोधित करते हुए कहा कि समरस समाज कैसे बनेगा! इसके कारणों की तलाश करनी होगी। समाज को खंडित करने वालों का जो प्रतिकार नाथ पंथ में है, उन तत्वों को सामने लाने का कार्य नाथ पंथ के अध्येताओं को करना है। भारत के समाज में धर्म चालक शक्ति रही है, धर्म की मूल भावना समरसता को बढ़ाती है। नाथ पंथ भी इसी समरसता को प्रोत्साहित करता है।
उन्होंने कहा कि नाथ पंथ ने व्यावहारिक ज्ञान का आत्मसातीकरण किया है। सभी साधनाओं के मूल में सहज होना है। सहजता ही आत्मा और समाज के उन्नयन का मार्ग है। आज अहंकार के कारण समाज की अखंडता बाधित होती है, नाथ पंथ ने इसका प्रतिकार किया। भगवान के रूप के भेद को समाप्त करने का कार्य किया। अखंड भारत को प्रभावित करने वाला पहला आंदोलन है नाथ पंथ।
अधिष्ठाता, कला संकाय प्रो. राजवन्त राव ने बतौर विशिष्ट अतिथि अपने उद्बोधन में कहा कि कोई भी धर्म या पंथ अपने समय की क्रांति है, वह मनुष्य के जीवन को बेहतर बनाने और अपने समय के प्रश्नों को हल करता है। हर युग के मनुष्य की अपनी समस्या होती है। प्रत्येक अगले युग में मनुष्य की चेतना आगे बढ़ जाती है, तो नई समस्या के निवारण के लिए नया धर्म या पंथ पैदा होता है। इसी क्रम में नौवीं-दसवीं सदी में नाथ पंथ का उदय हुआ। नाथ पंथ, भारतीय धर्म दर्शन के चिन्मय समुद्र का सार है। सभी धर्म-पंथ की परंपराएँ नाथ पंथ में समाहित हैं। यह मानता है कि आत्मा की निष्कलुषता एवं चैतन्यता ही समरसता का आधार बनती है। यह सहजता के गुण से आता है।
अधिष्ठाता, छात्र कल्याण प्रो. अनुभूति दूबे ने कहा कि नाथपंथ पर पहले भी संगोष्ठी एवं विमर्श होता रहा। नाथपंथ पर होने वाली प्रत्येक संगोष्ठी ने नया बेंच मार्क स्थापित किया है। यह संगोष्ठी निश्चय ही हमारे जीवन को प्रकाशित करेगी। समरसता जीवन का बहुत बड़ा मूल्य है। यह जीवन को बहुत सुंदर बना देती है। नाथ पंथ के चिंतन से पूरी दुनिया के समक्ष उपस्थित संकटों से उबरा जा सकता है।
समापन सत्र का संचालन डॉ. संजय तिवारी व संगोष्ठी के समन्वयक डॉ. कुशलनाथ मिश्र ने स्वागत वक्तव्य दिया। संगोष्ठी के संयोजक डॉ.अमित उपाध्याय ने आभार ज्ञापन किया। संगोष्ठी के आयोजन सचिव डॉ.सूर्यकांत त्रिपाठी ने प्रतिवेदन प्रस्तुत किया।
इस अवसर पर हिंदुस्तानी अकादमी, प्रयागराज के सचिव देवेंद्र प्रताप सिंह समेत सभी अधिकारी एवं कर्मचारी गण उपस्थित रहे।