रद्दा देखत रइहौंव तोर, गियां रे मंझनिया के पहाती।
आबे मोर खेत म मयारू, टोरे ल तिवरा, चना भाजी।।
केंवची-केंवची पाना ल, खोंट के रखबे ओली भर के।
साध बुतावत ले खाबो, नून अउ मिरचा लाबे धर के।।
हंसी-ठिठोली करत रहिबो, पिरीत के बनके हम साथी।
आबे मोर खेत म मयारू, टोरे ल तिवरा, चना भाजी।।
पक्का गुरतुर बोइर फरे हे, लबेदा मार-मार के गिराबो।
पार के राहेर पोठागे, टोरत-टोरत ददरिया गीत गाबो।।
तिवरा, चना अउ राहेर के बटकर खाए म मजा आही।
आबे मोर खेत म मयारू, टोरे ल तिवरा, चना भाजी।।
सुकसा भाजी, बोइर खोइला के साग ह बिकट मिठाही।
गरमी के दिन म रांधबे अम्मटहा, गोरी तोर मन ल भाही।।
मया तोला करथौंव बही, मोर ले मिले बर हो ज राजी।
आबे मोर खेत म मयारू, टोरे ल तिवरा, चना भाजी।।
कवि- अशोक कुमार यादव मुंगेली, छत्तीसगढ़
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