संगोष्ठी से निकला क्रांतिकारी आंदोलन का दहकता इस्पाती दस्तावेज: प्रो. पूनम टंडन
हिस्ट्री राइटिंग का टेंप्लेट बदलने की जरूरत:अनंत विजय
गोरखपुर (राष्ट्र की परम्परा)। दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय और भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली के संयुक्त तत्वाधान में इतिहास विभाग द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी के समापन सत्र की अध्यक्षता करते हुए कुलपति प्रोफेसर पूनम टंडन ने कहा कि इस राष्ट्रीय संगोष्ठी ने सही मायने में अपने लक्ष्यों को हासिल किया है। हमारा सदियों का अतीत इन दो दिनों के राष्ट्रीय संगोष्ठी में इस्पाती दस्तावेज की तरह हमारे समक्ष प्रस्तुत हुआ है। जो न सिर्फ अध्येताओं व शोधार्थियों को, बल्कि समाज को भी चिंतन करने के लिए बहुत कुछ दे गया। अकादमिक संवाद ही किसी शैक्षणिक संस्थान को असल मायने में जीवित रखता है। जो लोग इतिहास के विद्यार्थी नहीं हैं उनके लिए भी यह संगोष्ठी मिल का पत्थर साबित हुई है। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद का कार्य बड़ा एवं बुनियादी महत्व का है। संगोष्ठी में शामिल हुए सभी विद्वानों के प्रति हम सम्मान प्रकट करते हैं। इसके लिए इतिहास विभाग के सभी सदस्य प्रशंसा के पात्र हैं।
समापन सत्र के मुख्य अतिथि डॉ. बालमुकुंद पाण्डेय ने अपने संबोधन में कहा कि ‘मिसिंग लिंक’ तो स्वाभाविक है लेकिन
‘मिसिंग पेज’ एक षड्यंत्र है। सन1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना होती है। ऐसी स्थिति में सन1926 में कांग्रेस के आधिकारिक अध्यक्ष के द्वारा यह कहा जाना ‘नेशन मेकिंग’ हो रहा है। और 1942 के बाद ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में कहा गया कि ‘काफिले आते गए कारवां बनता गया’ तो यहाँ यह सवाल उठता है कि जब भारत राष्ट्र था ही नहीं, तो सन 1885 में किस भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई?
भारत का पहला असहयोग आंदोलन राम सिंह कूका के द्वारा शांतिपूर्ण ढंग से सफलतापूर्वक चलाया गया था। जो 1859 से 1883 तक चला। भारत छोड़ो आंदोलन वासुदेव बलवंत फड़के के द्वारा 1876 से 1883 तक चला था उसी का विस्तार 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन था।
10 फरवरी, 1917 को रमाकांत शुक्ल ने गांधी जी को चंपारण सत्याग्रह में आमंत्रित किया था। उसी आमंत्रण पत्र में उन्होंने गांधी जी को पहली बार ‘महात्मा’ संबोधित किया था। जबकि इतिहास के पन्नों में लिखा गया कि चंपारण सत्याग्रह के सफलता के बाद रवीन्द्रनाथ टैगोर जी ने गांधी जी को ‘महात्मा’ की उपाधि प्रदान की।
उन्होंने सवाल उठाते हुए कहा कि सन 1914 में ही चीन में रासायनिक नील की फैक्ट्री लग गई थी और भारत में केमिकल नील की सप्लाई आरंभ हो गई थी। फिर अप्रैल 1917 में नीलही क्रांति किस बात की हो रही थी?
उन्होंने एक और तथ्य उजागर करते हुए कहा कि सन 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों की आर्थिक स्थिति इतनी खराब हो चुकी थी कि उसे सुधारने के लिए जेम्स विल्सन को भारत भेजा गया. जिसने पहली बार भारत में आयकर लगाया। जबकि इतिहास में पढ़ाया जाता है कि स्वतंत्र भारत में नेहरू जी ने आयकर व्यवस्था दिया था।
वीर सावरकर ने ‘बार एट लॉ’ की परीक्षा पास किया था। उस समय डिग्री लेने के लिए ब्रितानिया सरकार के पक्ष में शपथ लेना आवश्यक था। इसलिए उन्होंने डिग्री नहीं लिया। वह जीवन भर भारत माता की सेवा करते रहे। जबकि नाम बताना आवश्यक नहीं है कि उसी दौर में कितने लोग ब्रितानिया सरकार के पक्ष में शपथ लेकर डिग्री प्राप्त किए।
समापन सत्र के विशिष्ट अतिथि अनंत विजय ने अपने संबोधन में कहा कि हिस्ट्री राइटिंग का टेंप्लेट बदलने की जरूरत है न कि इतिहास की किताब। उन्होंने कहा कि भारतीय ज्ञान परंपरा को फिक्शन कहकर उसकी उपेक्षा की गई। उन्होंने भारतीय इतिहास लेखन की संरचना के परिवर्तन पर बल दिया।
उन्होंने कहा कि हम इतिहास ग्रंथ काम बन पाए हैं हमें इसे और अधिक लिखने व जोड़ने की जरूरत है क्योंकि भारतीय पद्धति किसी की लकीर मिटाने से ज्यादा नई और बड़ी लकीर खींचने में विश्वास रखती है। असल सच्चाई को जनमानस तक पहुंचाने के लिए किताबों को लिखना आवश्यक है।
उन्होंने कहा कि महात्मा गांधी की हत्या करने वाले को महाराष्ट्रीयन एक तरह का सांप्रदायिक वातावरण पैदा किया गया। इससे आम महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण हिंसा के शिकार हुए और कई मारे गए। जबकि गणेश शंकर विद्यार्थी के लिए कहा गया कि वह मॉब द्वारा मारे गए। इन दोनों उदाहरणों से इसके पीछे के कुचक्र व साजिश को आसानी से समझा जा सकता है।
उन्होंने कहा कि इतिहास में यह बताया जाता है कि भारत की खोज वास्को डि गामा ने की, तो क्या इससे पहले भारत का अस्तित्व ही नहीं था? इसके पीछे की मानसिकता को अब हमें बेहतर ढंग से समझने की जरूरत है।
उन्होंने कहा कि अभी तक भारतीय इतिहासकारों ने उत्तर भारत केंद्रित इतिहास को ही प्रमुखता दिया है। दक्षिण के गौरवशाली चोल, पाड्य एवं विजयनगर आदि को इतिहास में महत्व नहीं दिया गया। मध्यकालीन भारत को केवल दिल्ली सल्तनत एवं मुगल शासन का पर्याय बना दिया है. आक्रांताओं को स्थानीय उपलब्धियां के ऊपर वरीयता देना कम्युनिस्ट इतिहासकारों का एक षड्यंत्र है। उन्होंने दावा किया कि 1972 के बाद रोमिला थापर, रामशरण शर्मा, इरफान हबीब आदि के नेतृत्व में भारतीय इतिहास को एक खास दिशा में मोड़ दिया गया। जिससे भारतीय ज्ञान परंपरा के प्रति हीनता बोध पैदा हुआ। अतः इतिहास लेखन भारतीय दृष्टिकोण से होना चाहिए एवं समग्रता में अतीत को व्याख्यात की जानी चाहिए।
इस सत्र का संचालन भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद नई दिल्ली के सदस्य सचिव डॉक्टर ओम जी उपाध्याय ने किया। इतिहास विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर मनोज कुमार तिवारी ने धन्यवाद ज्ञापन किया। स्वागत वक्तव्य प्रोफेसर हिमांशु चतुर्वेदी ने दिया।
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