Thursday, November 6, 2025
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क्या “रेवड़ी संस्कृति” अब अमेरिकी लोकतंत्र में भी असर दिखा रही है?

न्यूयॉर्क के मेयर भारतीय मूल के ट्रंप विरोधी ममदानी चुने गए-यह भारत के लिए गर्व है या चुनौती ?या फिर भारतीय राजनीतिक फंडा ‘रेवड़ियां बांटो और राज करो’ का अमेरिकी संस्करण?”

गोंदिया – वैश्विक स्तरपर न्यूयॉर्क शहर, जो अमेरिका की आत्मा और लोकतंत्र की जीवंत प्रयोगशाला कहा जाता है,आज 180 से अधिक देशों केप्रवासियों का घर है।भारतीय, पाकिस्तानी, बांग्लादेशी,और अफ्रीकी समुदाय यहाँ एक नई सामाजिक पहचान बना चुके हैं।वहाँ ट्रंप विरोधी भारतीय मूल के जोहरानममदानी का मेयर चुना जाना केवल एक स्थानीय राजनीतिक घटना नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय प्रवासी प्रभाव, राजनीतिक संस्कृति और विचारधारा के वैश्विक प्रसार का संकेत है।यह जीत अमेरिका में दक्षिण एशियाई समुदाय की नई राजनीतिक परिपक्वता को दर्शाती है।लेकिन इस विजय के साथ एक सवाल गूंज रहा है,क्या ममदानी की जीत भारत के लिए गर्व का विषय है या एक ऐसी चुनौती?यहीं पर प्रश्न उठता है,क्या ममदानी की विचारधारा भारत के हितों के साथ हमेशा मेल खाएगी ।

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ममदानी“डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट”हैं,जो कई बार अमेरिकी विदेश नीति पर खुलकर आलोचना करते रहे हैं।उन्होंने फ़िलिस्तीन, कश्मीर, और अल्पसंख्यक अधिकारों पर कई बार भारत की नीतियों की आलोचना की है।यदि वे भविष्य में अपने मेयर पद से ऐसे रुख़ अपनाते हैं जो भारत की नीतियों से असहमत हों, तो यह भारतीय कूटनीति के लिए असहज स्थिति बन सकती है।भारत के लिए यह जरूरी होगा कि वह “भारतीय मूल” और “भारतीय हित” के बीच अंतर को संतुलित रूप से समझे।क्योंकि हर भारतीय मूल का नेता आवश्यक नहीं कि भारत के हितों का प्रतिनिधि हो,वे अपने देश की नीतियों के अनुसार काम करते हैं। दूसरी ओर हमें यह सोचने को मजबूर करती है कि क्या भारतीय राजनीति का “रेवड़ी मॉडल” अब अमेरिका जैसे लोकतंत्र में भी सफल प्रयोग बन गया है?

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बीते दो दशकों में अमेरिका में भारतीय मूल के नेताओं का उदय लगातार बढ़ा है।कमला हैरिस उपराष्ट्रपति बनीं, नीरज अंटनी, अजय बंगा और नील कत्याल जैसे नाम अमेरिकी प्रशासन और न्यायिक ढांचे में प्रमुख हुए। लेकिन न्यूयॉर्क जैसे शहर में मेयर पद तक पहुँचना एक अलग ही ऐतिहासिक मुकाम है। ममदानी नें अपने अभियान में “समानता, सामाजिक सुरक्षा,और सबके लिए आवास” जैसे वादों को केंद्रीय मुद्दा बनाया। उन्होंने खुले तौर पर अरब-अफ्रीकी-अमेरिकी और प्रवासी समुदायों के हितों की वकालत की। उनके भाषणों और नीतिगत प्रस्तावों में भारत जैसी सामाजिक समानता की मांग झलकती थी। यही कारण है कि कई अमेरिकी विश्लेषक उन्हें “भारतीय जन कल्याण मॉडल का अमेरिकी अवतार”कह रहे हैं। मैं एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र यह संभावना दर्शा रहा हूं क़िममदानी की जीत के पीछे की सामाजिक, राजनीतिक पृष्ठभूमि की नजर से देखा जा रहा है,न्यूयॉर्क एक ऐसा शहर है जहाँ जातीय, सांस्कृतिक और आर्थिक विविधता एक साथ धड़कती है। वहाँ गरीबी और महंगाई से जूझता वर्ग “न्यायपूर्ण समाज” की तलाश में रहता है। ममदानी ने इन्हीं वर्गों को लक्ष्य बनाया उन्होंने कहा कि “सरकार का दायित्व केवल कानून- व्यवस्था नहीं, बल्कि नागरिक कल्याण है।”यह विचार भारतीय लोकतंत्र के उस विमर्श से जुड़ा है जहाँ सामाजिक कल्याण योजनाएँ (रेवड़ियां) गरीबों को राहत देने के साथ राजनीतिक लोकप्रियता का आधार बनती हैं। ममदानी ने इसी रणनीति को अमेरिकी शहरी परिदृश्य में रूपांतरित किया,जैसे फ्री ट्रांसपोर्ट , हाउसिंग सब्सिडी, और हेल्थ कार्ड जैसी योजनाएँ। आलोचकों के अनुसार, यही “रेवड़ी राजनीति” का वैश्विक ट्रांसप्लांट है।

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 साथियों बात अगर हम “रेवड़ी संस्कृति” का अमेरिकी प्रयोग, एक भारतीय राजनीतिक निर्यात को समझने की करें तो,भारतीय राजनीति में “रेवड़ी संस्कृति” शब्द भारतीय पीएम ने लोकप्रिय किया था, जब उन्होंने मुफ्त सुविधाओं को “राजनीतिक प्रलोभन” कहा। यह शब्द आज राजनीतिक विमर्श का प्रतीक बन चुका है। लेकिन जोहरान ममदानी की राजनीतिक सफलता ने इस मॉडल को एक नया अंतरराष्ट्रीय संदर्भ दे दिया है।उनकी चुनावी रणनीति में फ्री ट्रांजिट पास, न्यूनतम मजदूरी में वृद्धि, और हाउसिंग क्रेडिट जैसी घोषणाएँ थीं। अमेरिकी मीडिया ने इसे “सोशलिस्ट पॉपुलिज़्म” कहा, जबकि भारतीय सोशल मीडिया ने इसे “भारतीय स्टाइल रेवड़ी पॉलिटिक्स” की जीत बताया।यह सवाल अब वैश्विक विमर्श का हिस्सा बन गया है,क्या कल्याण योजनाएँ जनता की वास्तविक जरूरत हैं या लोकतंत्र में जन-समर्थन जुटाने का हथियार? 

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साथियों बात अगर हम भारत के लिए गर्व चुनौती या राजनीतिक प्रतिबिंब का खतरा? भारत के दृष्टिकोण से देखा जाए तो ममदानी की जीत प्रवासी भारतीयों के प्रभावशाली उदय का प्रतीक है। भारतीय मूल का व्यक्ति अमेरिका के सबसे बड़े शहर का मेयर बने,यह न केवल भारतीय लोकतंत्र की बौद्धिक शक्ति का प्रमाण है, बल्कि प्रवासी समुदाय की एकता और नेतृत्व क्षमता का भी।परंतु इसके भीतर छिपा खतरा यह है कि ममदानी “डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट” हैं,जो कई बार अमेरिकी विदेश नीति पर खुलकर आलोचना करते रहे हैं।उन्होंने फ़िलिस्तीन, कश्मीर, और अल्पसंख्यक अधिकारों पर कई बार भारत की नीतियों की आलोचना की है,भारत का “राजनीतिक फंडा” यानी कल्याण योजनाओं के माध्यम से वोट बैंक बनाना, यदि अमेरिकी प्रणाली में भी स्वीकार्यता पा रहा है, तो यह लोकतंत्र के वैश्विक स्वास्थ्य के लिए चुनौतीपूर्ण संकेत है।जहाँ भारत में “रेवड़ी” शब्द को आलोचना के रूप में देखा जाता है,वहीं ममदानी ने इसे “सामाजिक न्याय” के रूप में पैकेज कर दिया। यह वैचारिक पुनर्परिभाषा भारत के लिए गौरव का भी विषय है कि उसके मॉडल को वैश्विक मंच पर जगह मिली, और चिंता का भी कि क्या लोकतंत्र अब “फ्री गिफ्ट पॉलिटिक्स” की दिशा में जा रहा है? 

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साथियों बात कर हम ममदानी और ट्रंप विचारधारात्मक टकराव की प्रस्तावना को समझने की करें तो,ट्रंप के दौर में अमेरिकी राजनीति ध्रुवीकरण और राष्ट्रवाद की ओर बढ़ी थी। वहीं ममदानी जैसे नेता उस प्रवृत्ति के विरुद्ध खड़े हैं जो सामाजिक न्याय, अल्पसंख्यक अधिकार और प्रवासियों की आवाज़ को मुख्यधारा में लाते हैं।ममदानी की नीतियाँ ट्रंप की ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति के ठीक उलट हैं। वह “कम्युनिटी फर्स्ट” की बात करते हैं। यह विचारधारा का संघर्ष केवल अमेरिका तक सीमित नहीं है, बल्कि यह वैश्विक राजनीति के उस नए दौर को दर्शाता है जहाँ दक्षिण एशियाई सोच और पश्चिमी पूंजीवाद आमने-सामने खड़े हैं।भारत के संदर्भ में, यह स्थिति वैसी ही है जैसे नरेंद्र मोदी की आर्थिक राष्ट्रवाद की नीति के विपरीत, भारतीय राज्यों में समाजवादी मॉडल अपनाने वाले दलों की लोकप्रियता।इस प्रकार, न्यूयॉर्क का चुनाव परिणाम एक वैश्विक वैचारिक मिरर बन गया है। 

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साथियों बात अगर हम डेमोक्रेटिक पार्टीमें नई विचारधारा की बयार को समझने की करें तो, ममदानी का उदय डेमोक्रेटिक पार्टी के अंदर भी एक नई दिशा की ओर संकेत है। एलेक्जेंड्रिया ओकासियो-कोर्टेज और बर्नी सैंडर्स जैसे नेताओं की विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने “शहरी समाजवाद”का नया रूप प्रस्तुत किया।उनकी नीतियों में भारतीय मूल के समाजवादी चिंतन का असर स्पष्ट दिखता है,जहाँ सरकारी कल्याण और जनसहभागिता को समान महत्व दिया जाता है। वे कहते हैं, “गरीबी किसी व्यक्ति की असफलता नहीं, बल्कि नीति की असफलता है।”यह कथन भारतीय संविधान की “समाजवादी” मूल भावना से मेल खाता है। इसलिए कहा जा सकता है कि ममदानी ने भारतीय समाजवाद को अमेरिकी राजनीतिक संदर्भ में पुनर्जीवित किया है। 

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साथियों बात अगर हम भारतीय मीडिया और जनता कीप्रतिक्रिया को समझने की करें तो,भारत में ममदानी की जीत को लेकर दो प्रकार की प्रतिक्रियाएँ आईं। एक ओर उन्हें भारत की “सॉफ्ट पावर” और “बौद्धिक नेतृत्व” का प्रतीक बताया गया, तो दूसरी ओर आलोचकों ने कहा कि उन्होंने भारतीय राजनीति की “रेवड़ी संस्कृति” को अमेरिका में निर्यात कर दिया।भारतीय सोशल मीडिया पर मीम्स और चर्चाओं में कहा गया कि “अब न्यूयॉर्क भी दिल्ली हो गया।” वहीं कुछ उदारवादी चिंतकों ने इसे “समानता के वैश्वीकरण” का प्रतीक बताया।यह विभाजन स्वयं भारत की वैचारिक विभाजन रेखाओं को प्रतिबिंबित करता है,जहाँ समाजवादी कल्याण और आर्थिक व्यवहारिकता के बीच संतुलन अब भी एक अत्यंत जटिल सवाल है। 

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साथियों बात अगर हम वैश्विक राजनीति में भारतीय विचारधारा का प्रसार को समझने की करें तो,यदि इस जीत को व्यापक संदर्भ में देखा जाए, तो यह भारतीय राजनीतिक विचारों के वैश्विक प्रसार का संकेत है। भारत ने पिछले दशक में “वेलफेयर पॉलिटिक्स” को लोकतांत्रिक रूप से वैध बना दिया है।अमेरिका जैसे पूंजीवादी देश में जब यही मॉडल स्वीकार किया जाता है, तो यह दर्शाता है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था और समाज दोनों एक संक्रमण काल में हैं,जहाँ बाजार आधारित शासन से हटकर मानवीय कल्याण आधारित शासन की ओर झुकाव बढ़ रहा है।ममदानी की जीत इस बात की भी पुष्टि करती है कि “भारतीय लोकतंत्र केवल सीमाओं के भीतर नहीं, बल्कि एक वैचारिक निर्यात बन चुका है।” 

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साथियों बात अगर हम भारत- अमेरिका संबंधों पर संभावित प्रभाव को समझनेकी करें तो, ममदानी केविचार कई बार अमेरिकी विदेश नीति के परंपरागत ढांचे से टकरा सकते हैं। उन्होंने चुनाव अभियान के दौरान गाज़ा, फिलिस्तीन और शरणार्थी अधिकारों पर प्रखर रुख अपनाया था। यह भारत की मध्य-पूर्व नीति से मेल खाता है लेकिन अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान से नहीं।यदि वे न्यूयॉर्क जैसे वैश्विक वित्तीय केंद्र में प्रभावशाली नीतियाँ लागू करते हैं, तो यह अमेरिका की घरेलू और अंतरराष्ट्रीय प्राथमिकताओं को भी प्रभावित करेगा।भारत के लिए यह स्थिति अवसर और चुनौती दोनों है,अवसर इसलिए कि एक भारतीय मूल का नेता विश्व मंच पर भारत की बौद्धिक विरासत का विस्तार कर रहा है, और चुनौती इसलिए कि वह अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान में एक ऐसी वैचारिक धारा का प्रतिनिधित्व करता है जो भारत की वर्तमान राजनीतिक विचारधारा से भिन्न है। 

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साथियों बातें कर हम रेवड़ी या रिवोल्यूशन दो दृष्टिकोणों का संघर्ष को समझने की करें तो,ममदानी के वादों को लेकर जो विवाद है, वह केवल “फ्री गिवअवे” की नहीं, बल्कि “लोकतांत्रिक पुनर्संतुलन” की बहस है। उनके समर्थक कहते हैं कि यह “रेवड़ी” नहीं, बल्कि “समान अवसर” का विस्तार है।उदाहरण के लिए, मुफ्त ट्रांसपोर्ट स्कीम को वे “समान गतिशीलता का अधिकार” कहते हैं; जबकि विरोधी इसे “करदाताओं पर बोझ” बताते हैं।भारत में भी यही विमर्श चलता है,क्या सरकारी योजनाएँ गरीबों को सशक्त बनाती हैं या उन्हें निर्भर बनाती हैं? इस प्रश्न का कोईसार्वभौमिक उत्तर नहीं, लेकिन ममदानी की जीत ने इसे वैश्विक विमर्श बना दिया है।

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अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर इसका विश्लेषण करेंतो हम पाएंगे क़ि ममदानी की जीत : गौरव, चुनौती और प्रयोग तीनों का संगम है, ममदानी की जीत केवल एक चुनावी घटना नहीं,बल्कि भारतीय विचारधारा, समाजवादी चेतना और राजनीतिक व्यावहारिकता के वैश्विक प्रभाव का दस्तावेज़ है।भारत के लिए यह गर्व का विषय है कि उसकी संतानों ने लोकतंत्र के सबसे विकसित मंच पर भी अपनी छाप छोड़ी है।परंतु यह चेतावनी भी है कि यदि लोकतंत्र केवल मुफ्त योजनाओं पर आधारित होता चला गया, तो वह आर्थिक स्थिरता के बजाय भावनात्मक निर्भरता में बदल सकता है।ममदानी“डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट” हैं,जो कई बार अमेरिकी विदेश नीति पर खुलकर आलोचना करते रहे हैं।उन्होंने फ़िलिस्तीन, कश्मीर, और अल्पसंख्यक अधिकारों पर कई बार भारत की नीतियों की आलोचना की है इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा क़ि ममदानी की जीत  भारत के लिए न केवल गर्व है, बल्कि चुनौती भी हैँ।

संकलनकर्ता लेखक – कर विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार अंतरराष्ट्रीय लेखक चिंतक कवि संगीत माध्यमा सीए(एटीसी) एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र 9226229318

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