डॉ. सतीश पाण्डेय | महराजगंज (राष्ट्र की परम्परा)। देश में विकास के दावों के बीच जमीनी सच्चाई बिल्कुल अलग नजर आती है। आर्थिक, सामाजिक और प्रशासनिक असमानता की खाई पहले से कहीं अधिक चौड़ी हो चुकी है। गांव और शहर के बीच सुविधाओं का फासला बढ़ता जा रहा है, जबकि समस्याओं के समाधान की रफ्तार बेहद धीमी पड़ गई है। इससे आम लोगों का भरोसा सरकारी व्यवस्था पर कमज़ोर होता दिख रहा है।
ग्रामीण क्षेत्रों में अब भी बुनियादी सुविधाओं का अभाव
गांवों में साफ पेयजल, पक्की सड़कें, प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और रोजगार जैसी जरूरतें आज भी अधूरी हैं। सरकारी दावे बड़े हैं, लेकिन इन सुविधाओं का लाभ वास्तविक रूप से सीमित इलाकों तक ही पहुंच पा रहा है।
इसके विपरीत शहरों में संसाधनों की भरमार है—आधुनिक अस्पताल, चौड़ी सड़कें, बड़े बाजार और तेज आर्थिक गतिविधियां। यह असमानता केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक और शैक्षिक स्तर पर भी गहरी होती जा रही है।
महंगाई और बेरोजगारी ने तोड़ी आम आदमी की कमर
गरीब और मध्यम वर्ग लगातार बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी से जूझ रहा है। कई रिपोर्टों के अनुसार, योजनाएं तो समय-समय पर शुरू की जाती हैं, लेकिन लाभ लोगों तक पहुंचने में महीनों या सालों लग जाते हैं। कई बार शिकायतें सिर्फ कागजों में निस्तारित दिखती हैं, जबकि जमीनी स्तर पर कोई बदलाव नहीं होता।
विकास का मॉडल सवालों के घेरे में
विशेषज्ञों का कहना है कि विकास तभी संतुलित कहा जाएगा जब उसकी गति सभी वर्गों तक समान रूप से पहुंचे। वर्तमान स्थिति में समस्याएं तेजी से बढ़ रही हैं, लेकिन समाधान की प्रक्रिया बेहद धीमी है। यह प्रशासनिक तंत्र की कमियों की ओर संकेत करता है।
क्या है समाधान?
बढ़ती असमानता रोकने और विकास को संतुलित बनाने के लिए विशेषज्ञ कुछ अहम कदम सुझाते हैं—
• नीतियों को तेजी से जमीन पर उतारना
• संसाधनों का समान वितरण
• गरीब और वंचित वर्ग को प्राथमिकता
• जिम्मेदार विभागों पर कड़ी जवाबदेही
यदि समाधान की गति नहीं बढ़ी, तो असमानता की यह खाई इतनी गहरी हो सकती है कि समाज का संतुलन खतरे में पड़ जाए।
