
सिकन्दरपुर /बलिया(राष्ट्र की परम्परा)
श्रीहरि के नाम की महिमा का बखान जन स्वयं श्रीराम भी नहीं कर सकते तो और कौन कर सकेगा – ‘सम न सके नाम गुण गाई। उचित यही है कि सार्वभौमिक सत्ता सम्पन्न अन्तर्यामी प्रभु की कृपा प्राप्त्यर्थ किसी की बुराई न की जाय और न ही किसी की हिंसा की जाय। बच्चों में विनम्रता भरा उचित संस्कार डालें कि ले माता-पिता को सोते-जागते प्रणाम करें। यह उद्गार साध्वी सरोज बाला ने व्यक्त किया। वे भक्तिभूमि वृन्दावन से चलकर ड्रहाँ बिहरा (बलिया) ग्रामान्तर्गत आयोजित १०८ कुण्डीय कोटि होमात्मक अद्वैत शिवशक्ति राजसूय महायज्ञ में व्यासपीठ से सुभी श्रोताओं को सम्बोधित कर रही थीं।
साध्वी ने भक्तां की कथा के माध्यम से बताया कि 6 माता-पिता के जैसे विचार होते हैं प्रायः वैसी ही उनकी सन्तान होती है। भक्त प्रहलाद भले ही राक्षस कुल में जन्मा किन्तु वह भगवन्द्रन्त था क्योंकि उसमें कभी के उत्तम संस्कारों का अंकुरण हो चुका था। उसे पाठशाला में भेजा गया किन्तु राजाङ्गा थी कि वह का नाम न लेने पावे किन्तु संकल्प का धनी बालक प्रहलाद अपने सहपाठियों को भी राम-नाम जपने की प्रेरणा देने लगा, जब कोई परिवर्तन न हुआ तो उसके नृशंस पिता से स्वपुत्र प्रहलाद को कठोर दण्ड देना शुरू किया। प्रहलाद को पर्वत शेखर से गिराया गया तो वह बच गया, उसकी पीठ में पत्थर बादकर पानी में फेंका गया तो तैरता निकला, होलिका की गोद में बैठाकर आग लगायी गयी, होलिका जलमरी किन्तु प्रहलाद ठण्ड से काँपता निकला तब माँ कयाधु ने चुल्हे की, आग तपाकर सामान्य किया। अन्ततः तप्त लौह खम्भ में बंधवाकर नंगी तलवार लिये हिरण्यकश्यप ने पूछा, बता तेरा भगवान कहाँ है। गर्म छाम्भ पर रंगती चींटी देख प्रहलाद समझ गया कि भगवान आ गयेा भक्त बोला अपनी सन्ता के माध्यम से परमात्मा सर्वत्र है।” क्रूर हिरण्यकश्यप ने ज्योंही तलवार चलायी, खम्भ फाड़ प्रभु प्रकट हो दुष्ट हिरण्य- कश्यप को उसे प्राप्त वर की मयोदा रखते हुए अपनी जाग पर लिटाकर उसका पेट अपने नखों से फाड़कर मार डाले। हालाँकि प्रहलाद ने पिता को क्षमादान दिलाना चाहा किन्तु भक्त पर हुआ अत्याचार प्रभु से सहा नही गया। नृसिंह भगवान अपने भक्त प्रहलाद की जीभ से चाट चाटकर दुलार कर रहे थे। सत्य ही कहा गया है हारे को हरिनाम। चिरहरण के समय द्रौपदी और ग्राह से गजेन्द्र को मुक्त करने में श्रीहरि ने इसी प्रकार कृपा की।
कथा-प्रवास्तिका ने देशी गाय की सेवा-सम्मान हेतु प्रेरणा देते हुए कहा कि गोसेवा से समस्त देवी-देवता प्रसन्न होते हैं। देशी गाय का दूध विशेष हितकर है। उन्होंने बलि – वामन की कथा को रेखांकित करते हु बहुत बड़ा धर्म है। कि दान देना बहुतव हुए कहा राजा बलि के यहाँ धावकों को खाली हाथ लौटना नहीं पड़ता था। भगवान विष्णु नै बलि की परीक्षा लेनी चाही, एतदर्श ते वामन का वेश बनाकर बलि के द्वार पहुँचे। बलि उस समय यहा करने में प्रवृत्त थे। थे। बाले ने वामन की समयोचित सेवा कर आगमन का हेतु पूछा। उत्तर मिला- राजन! मुझे तीन पग भूमि चाहिए।”
बलि बोले:- अरे तीन पग भूमि लेकर क्या करोगे? वामन बोले- भजन के लिए, इससे अधिक लेकर क्या करूँगा? हालाँकि दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने मना किया किन्तु बोले नहीं माने। संकल्प के समय कमण्डल की टोंटी में सूक्ष्म रूप से शुक्राचार्य स्थित हो गये ताकि न पानी गिरेगा न संकल्प होगा। वामन भगवान कुशा से टोंटी साफ करने लैंग तो कुशा की नोंक से छिदकर शुक्राचार्य की एक आँख जाती रही। वामन भगवान दो पग तो नाप लिये किन्तु तीसरा पग राजा बलि की पीठ पर रखे। बलि की पुत्री रत्नमाला पहले तो वामन को देख उन्हें अपनी गोद में उठाना चाही किन्तु जब बलि को वामन भगवान बाँधने लगे तो वह सोची कि यदि क्षमता होती में इस छलिया वामन को जुग्भार डालती। आगे चलकर जब वह पूतना बनी तो कृष्ण ने उसका स्तनपान करने के बहाने उसकी उक्त दोनों इच्छायें पूर्ण की। बलि पर प्रसन्न वामन भगवान ने उसे सुतल लोक प्रदान किया। राजा बलि की इच्छा के अनुरूप विष्णु भगवान हावा रूप में आज भी वहाँ बलि की पहरेदारी कर रहे है। भक्तों के उद्धार हेतु सन्त-भगवन्त को पुनः पुनः जन्म लेना पड़ता है।
साध्वी जी ने कहा कि महाराज दशरथ जी पुत्र की कामना से गुरु के पास गये, गुरु ने बताया – राजन् ! आप चार पुत्र प्राप्त करेंगे। समय पाकर राजा दशरथजी शुरु के आशीर्वाद से चार पुत्र के पिता बने, इसी से कहा
गया है:- कत्ती करे न कर सके, गुरु करें सो होय ।
सात द्वीप नो खण्ड में, गुरु से बड़ा न कोय ॥
युग में त्रेता में रामावतार तथा द्वापर युग कृष्णावतार हुआ। श्रीराम और श्रीकृष्ण दोनों में परब्रह्मका तेज आवेशित रहा। दोनों की लीलायें भक्तभय- – हारिणी एवं लोकहितकारिणी थीं। उनका पावन चरित्र भक्तों को सदा-सर्वदा सम्बल प्रदान करता रहेगा। उन महानतम विभूतियों को कोटिशः नमन
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