Tuesday, October 28, 2025
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“कुश्ती की अखाड़े से राज्यपाल भवन तक: 20 अक्टूबर के दिन यूँ हुआ था भारत-सेवा का सफर”

भावनाओं की लकीरों में बँधा एक दिन – 20 अक्टूबर


वह तारीख जब हर साल हमें तीन ऐसे व्यक्तियों की याद आती है, जिन्होंने अपने-अपने क्षेत्र में देश की सेवा की, समाज को प्रेरित किया और सिकुड़ती हुई सीमाओं को लांघते हुए अपने हाथों में नेतृत्व की मशाल थाम ली —
दादू चौगुले दत्तात्रेय (पहलवान) 20 अक्टूबर 2019 को चले गए, निरंजन नाथ वांचू (वरिष्ठ प्रशासक व राज्यपाल) 20 अक्टूबर 1982 को अवसान हुआ और एच. सी. दासप्पा (क्रांतिकारी-नेता) 20 अक्टूबर- के दिन नहीं, लेकिन 29 अक्टूबर 1964 को नश्वर हुए; फिर भी 20 अक्टूबर को मृत्यु-दिन के रूप में प्रायः स्मरण किया जाता है।
आइए, इस लेख में इस दिन से जुड़े इन तीन गौरवपूर्ण व्यक्तियों पर नजर डालते हैं — उनकी पृष्ठभूमि, शिक्षा-जीवन, योगदान और जीवन-खण्ड — ताकि हम उन्हें न केवल एक तारीख पर याद करें, बल्कि उनके प्रेरक चरित्र को भी आत्मसात कर सकें।

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  1. दादू चौगुले दत्तात्रेय
    दादू चौगुले दत्तात्रेय महाराष्ट्र के कोल्हापूर जिले के कुशल पहलवान थे, जिनका नाम भारतीय कुश्ती के सुनहरे पन्नों में शुमार है। इनके जन्म-साल को सटीक रूप से ज्ञात नहीं है (लगभग 1946), परंतु उन्होंने 20 अक्टूबर 2019 को अपनी अंतिम सांस ली।
    जन्म-स्थान एवं पृष्ठभूमि: दादू का जन्म महाराष्ट्र के कोल्हापूर जिले में हुआ था, एक किसान-परिवार में। कोल्हापूर की मिट्टी किंवदंतियों को जन्म देती रही है, और इस माहौल ने उन्हें पारंपरिक कुश्ती (मट-कुश्ती) की ओर प्रेरित किया।
    शिक्षा एवं प्रशिक्षण: उन्होंने विशुद्ध शैक्षणिक शिक्षा का विवरण कम ही दिया है, लेकिन पहलवान के रूप में उनकी प्रशिक्षण कहानी प्रेरणादायक है। उन्होंने कोल्हापूर के प्रसिद्ध मोतीबाग तलीम (अखाड़ा) में प्रशिक्षण लिया।
    प्रमुख उपलब्धियाँ:
  • 1970 और 1971 में “महाराष्ट्र केसरी” का खिताब जीता।
  • 1973 में “रुस्तम-ए-हिंद” और “महान भारत केसरी” जैसे दिग्गज शीर्षक प्राप्त किए।
  • 1974 के ब्रिटिश कॉमनवेल्थ गेम्स (न्यूज़ीलैण्ड) में हैवीवेट श्रेणी में रजत पदक जीता।
  • 2018 में भारत सरकार द्वारा “ध्यानचंद पुरस्कार” से सम्मानित।
    योगदान एवं विरासत: दादू ने न केवल व्यक्तिगत उपलब्धि हासिल की, बल्कि उन्होंने महाराष्ट्र की पारंपरिक कुश्ती-संस्कृति को नई ऊर्जा दी। कोल्हापूर के अखाड़ों में युवाओं को प्रेरित करना, ग्रामीण हिस्सों से प्रतिभाओं को लाना — ये उनकी नींव-गत क्रियाएँ थीं। उनका निधन कोल्हापूर में हुआ, जब वे अस्पताल में अस्थमा की शिकायत के बाद हार्ट अटैक से ग्रस्त हुए।
    उनकी कहानी हमें याद दिलाती है कि कैसे एक किसान-परिवार का बेटा, सख्ती और समर्पण से राष्ट्रीय मंच पर उभरा — और कैसे पहलवानों का जीवन केवल कुश्ती नहीं, बल्कि अनुशासन, देश-प्रेम और सामाजिक प्रेरणा का स्रोत हो सकता है।
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  1. निरंजन नाथ वांचू
    निरंजन नाथ वांचू (आमतौर पर “वंचू/वांचू” लिखा गया) भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई.सी.एस) के वरिष्ठ अधिकारी और बाद में राज्यपाल रहे। इनका जन्म 1 मई 1910 को सतना (मध्य प्रदेश) में हुआ था।
    जन्म-स्थान एवं पृष्ठभूमि: सतना, मध्य प्रदेश (तत्कालीन ब्रिटिश भारत) उनका मूल है। वहाँ से प्रारंभ हुआ उनका सफर, बाद में उन्हें भारत के बड़ेल भूमिकाओं तक ले गया।
    शिक्षा एवं उछाल: वांचू ने सबसे पहले नाउगाँव (मध्य प्रदेश) में प्राथमिक शिक्षा ली (1916–1920) और बाद में कैल्कुलेटेड ट्रैक पर गए: गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर; फिर किंग्स कॉलेज, कैम्ब्रिज (यू.के) और रॉयल कॉलेज ऑफ डिफेंस स्टडीज, यू.के.
    कार्यकाल एवं नेतृत्व:
  • 1934 में आई.सी.एस. में चयनित होकर बिहार में सब-कलेक्टर के रूप में सेवा शुरू की।
  • 1948–57 में रक्षा उत्पादन में चीफ कंट्रोलर, 1960–61 में वित्त मंत्रालय में सचिव, 1965-70 में बोकारो स्टील संयंत्र अध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण पदों पर रहे।
  • 1 अप्रैल 1973 से 10 अक्टूबर 1977 तक केरल के राज्यपाल रहे।
  • 14 अक्टूबर 1977 से 16 अगस्त 1978 तक मध्य प्रदेश के राज्यपाल रहे।
    योगदान एवं प्रभाव: वांचू का प्रशासनिक करियर विविध और गहरा था: उन्होंने रक्षा-उद्योग, बजट-वित्त, राज्य-खनन तथा उद्योग विकास जैसे क्षेत्रों में योगदान दिया। राज्यपाल के रूप में उन्होंने केरल और मध्य प्रदेश में संवैधानिक नेतृत्व के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी शैक्षणिक पृष्ठभूमि और प्रशासनिक अनुभव ने उन्हें आधुनिक भारत के बुनियादी ढाँचे तथा राज्य-प्रशासन की चुनौतियों से निपटने में सक्षम बनाया।
    उनका 20 अक्टूबर 1982 को निधन हुआ।
    उनकी कहानी यह सिखाती है कि किस तरह शिक्षा, समर्पण और प्रशासनिक कुशलता से व्यक्ति राष्ट्र-सेवा के उच्च पायदान तक पहुँच सकता है — गाँव से विश्व-कॉलेज और राज्य-मुख्यपदों तक का सफर।
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  1. एच. सी. दासप्पा
    एच. सी. दासप्पा (Hirallli Chenniah Dasappa) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक सक्रिय योद्धा एवं बाद में राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिज्ञ थे। इनका जन्म 5 दिसंबर 1894 (कुछ स्रोतों में 5 दिस॰) को कूर्ग (अब कर्नाटक) के मर्केरा में हुआ था।
    जन्म-स्थान एवं पृष्ठभूमि: मर्केरा, कूर्ग (तत्कालीन ब्रिटिश भारत) आज के कर्नाटक राज्य का हिस्सा। इन्हें अपने समय में न्याय, सामाजिक बदलाव और राजनीतिक चेतना के क्षेत्र में महत्वपूर्ण माना जाता था।
    शिक्षा एवं प्रारंभिक जीवन: उन्होंने कॉलेज शिक्षा ली (विविध स्रोतों में तर्क हैं) और वकालत की पृष्ठभूमि भी रही।
    स्वतंत्रता संग्राम एवं सार्वजनिक सेवा: दासप्पा ने कांग्रेस-संगठन में सक्रिय भूमिका निभाई। आज़ादी के बाद उन्होंने संसद में लोकसभा सदस्य के रूप में (1957 और 1962 में चुनाव) कार्य किया।
    21 सितंबर 1963 से 8 जून 1964 तक वे रेल मंत्री रहे।
    योगदान एवं सामाजिक पहल: दासप्पा ने समाज में न्याय, शिक्षा और विकास के लिए काम किया। उन्होंने राजनीतिक जीवन के साथ-साथ सामाजिक सुधारों का रास्ता चुना — और नए भारत के निर्माण में सक्रिय भूमिका अदा की। उनका निधन 29 अक्टूबर 1964 को हुआ था।
    उनका जीवन यह प्रमाणित करता है कि स्वतंत्रता-उपरांत भारत के निर्माण में सिर्फ राजनैतिक भूमिका नहीं, बल्कि स्व-शिक्षा, सामाजिक चेतना और लोक-सेवा का समन्वय आवश्यक था।
    समापन विचार
    20 अक्टूबर की तारीख हमें याद दिलाती है कि देश की विविध-भूमियों से आने वाले लोग — कुश्ती के अखाड़े से, प्रशासनिक चक्रवात से, या स्वतंत्रता-संग्राम के रणभूमि से — कैसे अपनी विशिष्ट पहचान बना सकते हैं। दादू चौगुले ने देश को गौरव दिलाया, निरंजन नाथ वांचू ने संविधान-सेवा में योगदान दिया, और एच. सी. दासप्पा ने सामाजिक-राजनीतिक उत्साह का प्रतीक बने।
    इनकी-इनकी कहानियाँ हमें प्रेरित करती हैं कि जब लक्ष्य, समर्पण और देश-भक्ति साथ हों, तो सीमाएँ धुंधली पड़ जाती हैं। आइए हम इन तीनों की स्मृति में यह प्रण लें — अपने-अपने क्षेत्र में कुछ अच्छा करें, समाज-के लिए कुछ दें, और आने-वाले पीढ़ियों के लिए रास्ता आसान बनाएं।
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