गोंदिया – बिहार विधानसभा चुनाव क़े आए हैरत अंगेज़ नतीजों के बाद बिहार की राजनीति एक बार फिर से परिवारवाद के आरोपों के इर्द-गिर्द घूमने लगी है। नई सरकार के गठन के बाद 21 नवंबर 2025 को देर श्याम जिस तरह से आरजेडी ने मुख्यमंत्री और भारत क़े प्रधानमंत्री पर तीखे सवाल दागे हैं,उसी तीव्रता से बीजेपी ने भी जवाबी हमला करके पूरे राजनीतिक विमर्श को नई दिशा की ओर मोड़ दिया है। बिहार में सत्ता परिवर्तन के हर चरण के साथ परिवारवाद का मुद्दा किसी धधकते अंगारे की तरह सामने आता रहा है,कभी शांत, तो कभी भड़कता हुआ।मैं एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र यह मानता हूं क़ि यह बहस महज़ राजनीतिक रणनीति नहीं बल्कि भारतीय लोकतंत्र के भीतर वंशवाद बनाम योग्यता के बड़े विमर्श का हिस्सा है, जो दशकों से विभिन्न राज्यों में अलग-अलग रूपों में सामने आता रहा है।नई सरकार के शपथ ग्रहण के बाद आरजेडी ने जिस आक्रामक अंदाज़ में नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री मोदी को घेरा,उससे यह साफ़ हो गया कि आने वाला राजनीतिक सीज़न सिर्फ़ विकास या प्रशासनिक मुद्दों पर नहीं, बल्कि सत्ता में “कौन और क्यों” शामिल है,इस सबसे संवेदनशील प्रश्न पर भी केंद्रित रहेगाआरजेडी ने कहा कि परिवारवाद पर सबसे ज़्यादा शोर मचाने वाले अब स्वयं उसी प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रहे हैं, इसलिए उन्हें अपने ही आरोपों का जवाब देना चाहिए। यह हमला इसलिए भी तीखा माना गया क्योंकि आरजेडी ने सीधे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री जैसे दो शीर्ष पदों को इस बहस के केंद्र में रख दिया।आरजेडी का तर्क स्पष्ट है,यदि हमारी पार्टी पर वर्षों से परिवारवाद के आरोप लगाए जाते रहे हैं, तो फिर वही कसौटी उन लोगों पर क्यों न लागू की जाए जो इस मुद्दे को नैतिकता और राजनीतिक शुचिता के चश्मे से देखने की बात करते हैं? इस आरोप के उठने भर से बिहार का राजनीतिक माहौल गरमाना स्वाभाविक था।
साथियों बात अगर हम कैबिनेट गठन के बाद बढ़ाविवाद कौन किसका बेटा की सूची और बयानबाज़ी की तीक्ष्णता को समझने की करें तो,नीतीश सरकार के नए मंत्रिमंडल ने जैसे ही शपथ ली,आरोपों की नई पर्तें खुलनी शुरू हो गईं। आरजेडी ने मंत्रियों की एक सूची जारी की, जिसमें दिखाया गया था कि नए कैबिनेट के कई चेहरे किसी न किसी रूप में राजनीतिक परिवारों की अगली पीढ़ी से आते हैं,कोई पूर्व मुख्यमंत्री का बेटा, कोई पूर्व मंत्री का वारिस, कोई जिला स्तर के शक्तिशाली परिवार का सदस्य।आरजेडी का तर्क था कि यही वही तत्व है जिसे एनडीए “परिवारवाद का विरोध” कहकर चुनावी मंचों पर चुनौती देता रहा है।यह सूची जारी होते ही राजनीतिक तापमान और बढ़ गया। आरोप और प्रत्यारोप इस कदर गहरे हो गए कि बहस अब राजनीतिक समीकरणों से निकलकर राजनीतिक नैतिकता और सिद्धांतों के बड़े दायरे में पहुंच गई। आरजेडी ने कहा कि जो लोग चुनावों में वंशवाद के ख़िलाफ़ क्रांति की बात करते थे, अब वही अपने शासन में परिवारों को ही सबसे बड़ी भूमिका दे रहे हैं।
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साथियों बात अगर हममंत्रिमंडल में जगह पाए इस परिवारवादी सूची तथा व्यंग्य, कहावतें और राजनीतिक कटाक्ष,बिहार की सियासत की सदाबहार शैली को देखकर समझने की करें तो (1) संतोष सुमन-पूर्वसीएम व गया से सांसद और वर्तमान केंद्रीय मंत्री जीतन राम मांझी का पुत्र, वर्तमान विधायक ज्योति मांझी का दामाद और वर्तमान विधायक दीपा मांझी का पति संतोष सुमन मांझी (2) सम्राट चौधरी-पूर्व मंत्री शकुनी चौधरी और पूर्व विधायक दिवंगत पार्वती देवी का उपमुख्यमंत्री पुत्र सम्राट चौधरी। (3) दीपक प्रकाश-पूर्व केंद्रीय मंत्री, वर्तमान राज्यसभा सांसद उपेंद्र कुशवाहा और वर्तमान विधायक स्नेहलता का पुत्र दीपक प्रकाश।(4) श्रेयसी सिंह- पूर्व केंद्रीय मंत्री दिग्विजय सिंह और पूर्व सांसद पुतुल कुमारी की पुत्री श्रेयसी सिंह।(5) रमा निषाद -पूर्व केंद्रीय मंत्री कैप्टन जय नारायण निषाद की बहु और पूर्व सांसद अजय निषाद की पत्नी रमा निषाद। (6) विजय चौधरी- पूर्व विधायक जगदीश प्रसाद चौधरी का पुत्र विजय चौधरी। (7) अशोक चौधरी-पूर्व मंत्री महावीर चौधरी का पुत्र और समस्तीपुर की वर्तमान सांसद शांभवी चौधरी का पिता अशोक चौधरी (8) नितिन नबीन-पूर्व विधायक नवीन किशोर सिन्हा का पुत्र नितिन नबीन।(9)सुनील कुमार- पूर्व मंत्री चन्द्रिका राम का पुत्र और पूर्व विधायक अनिल कुमार का भाई सुनील कुमार।(10) लेसी सिंह-समता पार्टी के पूर्व जिला अध्यक्ष दिवंगत भूटन सिंह की पत्नी लेसी सिंह।व्यंग्य, कहावतें और राजनीतिक कटाक्ष, बिहार की सियासत कीसदाबहार शैली-बिहार की राजनीति में व्यंग्य हमेशा ही बहस का एक प्रमुख हथियार रहा है। आरजेडी ने परिवारवाद पर अपने हमले को और तीखा करनेके लिए प्रसिद्ध कहावतों और दोहों का इस्तेमाल किया।वंशजों की पालकी उठवाए चारों दिशाम, फिर दूसरों के नीति पर दें कैसे वो ज्ञान इसी तरह आरजेडी ने सबको परिचित कहावत का सहारा लिया-“जिनके सूप ही हजारो छेद है, वो चलनी पर क्या सवाल खड़े करेंगे।”ये पंक्तियाँ केवल शाब्दिक कटाक्ष नहीं थीं, बल्कि यह संकेत भी थीं कि राजनीतिक बहस अब तर्क के स्तर से भावात्मक और सांस्कृतिक प्रतीकों के स्तर पर जा चुकी है। बिहार जैसे राज्य, जहाँ लोककथाएँ और कहावतें सामाजिक चेतना का हिस्सा हैं, वहाँ इस प्रकार के व्यंग्य राजनीतिक प्रभाव को कई गुना बढ़ा देते हैं।
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साथियों बात अगर हम एनडीए का पलटवार,परिवारवाद की ‘नई परिभाषा’ और राजनीति की बदलती भाषा को समझने की करें तो, जैसे ही आरजेडी के आरोपों ने गति पकड़ी, वैसे ही एनडीए नेताओं का जवाब भी तेजी से सामने आया। बीजेपी के वरिष्ठ नेता दिलीप जायसवाल ने सीधे तौर पर कहा कि विपक्ष आज तक परिवारवाद की परिभाषा समझ ही नहीं पाया है। उनके अनुसार, परिवारवाद केवल मंत्री या विधायक का बेटा मंत्री बनने तक सीमित नहीं है;परिवारवाद का असली अर्थ है,जब कोई प्रधानमंत्री का बेटा प्रधानमंत्री बने, मुख्यमंत्री का बेटा मुख्यमंत्री बने,और सत्ता पूरी तरह वंशगत विरासत में बदल जाए।उनका संकेत स्पष्ट रूप से कांग्रेस,समाजवादी पार्टी और आरजेडी की ओर था। वे कह रहे थे कि नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार, या भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व में परिवारवाद का कोई स्थान नहीं है, इसलिए आरजेडी के आरोप निराधार हैं।एनडीए की यह “नई परिभाषा” राजनीतिक बहस के नए विमर्श की तरह सामने आई। अब सवाल केवल पद पाने का नहीं, बल्कि सत्ता के शीर्ष वंश के जन्मगत अधिकारों का बनाम जनता के प्रतिनिधि चुनाव से मिलने वाली वैधता का बन गया।
साथियों बातें अगर हम सोशल मीडिया पर बहस समर्थन तंज़ और राजनीतिक ध्रुवीकरण को समझने की करें तो, राजनीति का हर मुद्दा अब सोशल मीडिया पर तुरंत ही ट्रेंड बन जाता है, और परिवारवाद का मुद्दा भी इससे अलग नहीं रहा। आरजेडी समर्थकों ने जैसे ही कैबिनेट में शामिल “परिवारवाद के चेहरे” वाली सूची सामने रखी, कई यूज़र ने इसे “एनडीए का दोहरा चेहरा” बताया। उनका कहना था कि भाजपा परिवारवाद को लेकर केवल उन दलों पर उंगली उठाती है,जिनसे उसका वैचारिक विरोध है, लेकिन जब बात सहयोगी दलों या अपनी सरकार के मंत्रियों की हो, तो वही मापदंड गायब हो जाते हैं।वहीं दूसरी तरफ़ एनडीए समर्थकों ने इस पूरे विवाद को “हार के बाद की निराशा” बताया। उनका तर्क था कि जिन दलों को जनता ने बार-बार अस्वीकार किया, वे अब उन्हीं मुद्दों को उछालकर अपनी खोई ज़मीन तलाश रहे हैं, जिन पर जनता अब भरोसा नहीं करती। सोशल मीडिया की यह दोहरी प्रतिक्रिया इस बात का संकेत है कि बिहार की राजनीति केवल विधानसभा या संसद के मंच तक सीमित नहीं है; यह हर मोबाइल स्क्रीन का मुद्दा और हर मतदाता की भावनात्मक दुनिया का हिस्सा बन चुकी है।
साथियों बात अगर हम परिवारवाद पर बहस का गहरा पक्ष,लोकतंत्र, अवसर और बदलता राजनीतिक समाज इसको समझने की करें तो,परिवारवाद की बहस केवल बिहार की राजनति तक सीमित नहीं है; यह भारत की राजनीतिक संस्कृति का बड़ा प्रश्न है। लोकतंत्र का आधार समान अवसर और योग्यता है,जबकि वंशवाद इसेसीमित करता है। लेकिन भारतीय राजनीति में परिवारवाद का दूसरा पहलू भी है,राजनीतिक परिवारों की सामाजिक पहुंच, नेटवर्क और वर्षों का अनुभव कभी-कभी उन्हें चुनावी राजनीति के प्राकृतिक खिलाड़ी बना देता है।यही कारण है कि भारत के लगभग हर राज्य में, चाहे वह तमिलनाडु हो, उत्तर प्रदेश हो,या पंजाब,राजनीतिक परिवार अपनी भूमिका बनाए रखते हैं। बिहार भी इससे अलग नहीं है।वर्तमान बहस यही सवाल उठाती है कि क्या राजनीति में परिवारवाद स्वाभाविक है या इसे चुनौती देने की आवश्यकता है? क्या राजनीतिक परिवारों का होना अपने आप में समस्या है, या समस्या तब पैदा होती है जब निर्णय केवल वंश के आधार पर लिए जाते हैं और योग्यता को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है?एनडीए और आरजेडी का मौजूदा विवाद इसी बड़े प्रश्न का छोटा रूप है।
साथियों बात अगर हम भारतीय पीएम का उल्लेख और बहस का राष्ट्रीय विस्तार इसको समझने की करें तो,जब भी परिवारवाद की बात होती है, भारतीय पीएम का विशेष उल्लेख होता है क्योंकि उन्होंने कई चुनावों में परिवारवाद को राष्ट्रीय राजनीति की सबसे बड़ी बीमारी बताया है।आरजेडी का यह दावा कि बिहार के कैबिनेट में परिवारवाद के उदाहरण मौजूद हैं, और पीएम को इसका जवाब देना चाहिए,इस बहस को तुरंत राष्ट्रीय राजनीति के स्तरपर ले आया।पीएम हमेशा यह कहते रहे हैं कि उनका परिवार “130 करोड़ भारतीय” हैं। यही कारण है कि बीजेपी यह तर्क देती है कि मोदी के नेतृत्व में परिवारवाद के आरोप बेमानी हैं। लेकिन विपक्ष के अनुसार,“परिवारवाद” शब्द का राजनीतिक उपयोगकेवल विरोधियों को बदनाम करने के लिए किया जाता है, न कि अपने गठबंधन के भीतर लागू करने के लिए।
अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर इसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि परिवारवाद के आरोपों से उठा सियासी तूफ़ान-आरजेडी बनाम एनडीए की टकराहट,परिवारवाद की बहस केवल बिहार की राजनीति तक सीमित नहीं;यह भारत की राजनीतिक संस्कृति का बड़ा प्रश्न है,वंशवाद,लोकतंत्र का आधार, समान अवसर और योग्यता क़ो सीमित करता है’
-संकलनकर्ता लेखक – लेखक चिंतक कवि एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र 9226229318
