डा. विजय श्रीवास्तव

संस्कृत का एक प्रसिद्ध वाक्य है— “अन्य क्षेत्रे कृतं पापं, तीर्थ क्षेत्रे विनश्यति; तीर्थ क्षेत्रे कृतं पापं, व्रजालेपो भविष्यति।” इसका अर्थ है कि अन्यत्र किए गए पाप तीर्थ में जाकर धुल सकते हैं, किंतु यदि तीर्थक्षेत्र में ही पाप करोगे तो उसका प्रायश्चित कहाँ संभव है? यही कथन दादा धर्माधिकारी की पुस्तक ‘गांधी विचार और पर्यावरण’ में उद्धृत है। दादा धर्माधिकारी का मूल लेखन मराठी में है, किंतु उनके विचार गहन और सारगर्भित हैं। वे भोगवादी जीवनशैली और प्रकृति के शोषण के विरुद्ध एक अहिंसक क्रांति की नींव रखते हैं।

गांधीजी की अहिंसा केवल मानव तक सीमित नहीं थी, बल्कि वे इसे प्रकृति पर भी लागू करते थे। उनके लिए शुद्ध पर्यावरण स्वयं एक तीर्थ था, जिसकी रक्षा करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। लेकिन यह कर्तव्य-बोध आर्थिक लालसा से ग्रस्त आधुनिक मनुष्य के भीतर क्षीण होता जा रहा है। गांधी का मानना था कि यदि आप आत्मनिर्भर जीवन जिएं और दूसरों को जीने में मदद करें, तो यही सच्ची अहिंसा है। यही सनातन धर्म का भी संदेश है, जो धरती को पाँच तत्वों से निर्मित माँ मानकर उसका सम्मान करने की शिक्षा देता है।

आज की उत्तर-आधुनिक सभ्यता गांधी की इस अहिंसा को नहीं समझ पाई है। ‘सतत विकास’ का नारा देकर हम पल्ला झाड़ लेते हैं, जबकि दार्शनिक दृष्टि से ‘सतत’ और ‘विकास’ परस्पर विरोधी शब्द हैं। विकास, जो नदियों, पहाड़ों, जंगलों और भूमि का अंधाधुंध शोषण करता है, कभी भी सतत नहीं हो सकता। हमने ‘वसुंधरा’ को ‘वसु’ यानी संपत्ति मानकर उसका दोहन शुरू किया, जबकि अथर्ववेद भूमि को ‘जगततारिणी’ कहता है।

दादा धर्माधिकारी और गांधी का विचार यह नहीं था कि यंत्र या तकनीक का विरोध किया जाए। वे मानते थे कि यदि यंत्र पर्यावरण को क्षति पहुँचाए तो वह मानव-द्रोही है। विज्ञान और विकास तभी सार्थक हैं जब वे आध्यात्मिकता और आत्मसंयम के साथ हों। गांधी के अनुसार पर्यावरण के प्रति मनुष्य का वही दायित्व है जो राज्य के प्रति होता है।

गांधी की अहिंसा त्रिस्तरीय थी— वह केवल हिंसा-निवारण नहीं बल्कि सत्य, प्रेम और आत्मसंयम पर आधारित थी। आने वाली पीढ़ियों के लिए संसाधनों को बचाना भी अहिंसा का ही स्वरूप है। यही कारण है कि गांधी लघु तकनीकों और स्वदेशी जीवनशैली पर बल देते थे। पूंजीवादी उच्च-स्तरीय तकनीकें पर्यावरण की रक्षा का दावा तो कर सकती हैं, किंतु सतत भविष्य का निर्माण नहीं कर सकतीं।

आज जंगल, जल और जमीन का अवमूल्यन तीव्र गति से हो रहा है। अधिकांश पहाड़ नंगे हो चुके हैं, प्राकृतिक वन समाप्त हो रहे हैं, भूमिगत जलस्तर नीचे जा रहा है और भूमि की उर्वरा शक्ति घट रही है। कारखानों से निकलने वाले जहरीले तत्व नदियों, तालाबों और मिट्टी को प्रदूषित कर रहे हैं। यह दोषपूर्ण औद्योगिक नीति का प्रत्यक्ष परिणाम है।

सच यह है कि 2006 के बाद से हमारे पास कोई ठोस पर्यावरण नीति नहीं रही। मौजूदा नीतियाँ केवल सतही और खानापूरी वाली बातें करती हैं। यदि हमने विकास के अपने दोषपूर्ण मॉडल को नहीं बदला, तो आने वाली पीढ़ी केवल किताबों में पढ़ेगी—“एक जंगल हुआ करता था, एक नदी बहा करती थी, एक पोखर हुआ करता था।” क्या हम अपनी प्राकृतिक धरोहर को संग्रहालय की वस्तु बना देंगे?

सनातन संस्कृति हमें याद दिलाती है कि प्रकृति स्वयं ईश्वर का रूप है। प्रश्न यह है कि क्या हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के सामने पर्यावरण न बचा पाने का कलंक छोड़ेंगे? अब समय है चेतने का— स्वदेशी का प्रयोग कीजिए, पॉलिथीन का बहिष्कार कीजिए, उपभोग को नियंत्रित कीजिए और आवश्यकता आधारित जीवन अपनाइए। विकल्प आपके सामने है— एक हरित भविष्य या प्रदूषण से ग्रस्त समाज।