दिल्ली, देश की राजधानी, सत्ता का केंद्र और विविधता का प्रतीक। लेकिन जब इसी शहर में 14 साल के लंबे अंतराल के बाद फिर से बम विस्फोट की गूंज सुनाई देती है, तो यह केवल एक घटना नहीं होती, बल्कि कई सवालों का विस्फोट भी साथ लाती है—क्या हमारी सुरक्षा व्यवस्था केवल दिखावे तक सीमित है? क्या खुफिया एजेंसियों की सतर्कता सुस्त पड़ी है? और सबसे अहम, क्या नागरिक अब भी ‘सुरक्षित’ महसूस कर सकते हैं?
14 साल पहले दिल्ली ने वह भयावह शाम देखी थी जब कुछ मिनटों में कई धमाकों ने जनजीवन अस्त-व्यस्त कर दिया था। तब भी जांच एजेंसियों ने ‘सुरक्षा में चूक’ की बात कही थी, और आज फिर वही शब्द गूंज रहे हैं। फर्क बस इतना है कि तब यह नई चिंता थी, अब यह ‘सिस्टम की पुरानी बीमारी’ बन चुकी है।
वर्तमान विस्फोट को लेकर प्रारंभिक जांच बताती है कि यह योजनाबद्ध था, स्थान, समय और तरीका सबकुछ सोच-समझकर चुना गया। यह इस बात का संकेत है कि आतंकी मानसिकता अब भी सक्रिय है और उसने एक बार फिर यह परखने की कोशिश की है कि दिल्ली कितनी सतर्क है। दुर्भाग्य यह कि जवाब उम्मीद से कमजोर साबित हुआ।
भारत ने बीते वर्षों में तकनीकी निगरानी, सीसीटीवी नेटवर्क और खुफिया सूचना तंत्र में बहुत निवेश किया है। लेकिन जब भी इस तरह की घटना घटती है, यह साफ हो जाता है कि हमारी सुरक्षा की दीवार में कहीं न कहीं दरार अब भी मौजूद है। यह दरार केवल तकनीकी नहीं, बल्कि प्रशासनिक, राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर भी है।
सुरक्षा का सवाल केवल पुलिस या खुफिया एजेंसियों तक सीमित नहीं होना चाहिए। समाज को भी चौकस रहना होगा। संदिग्ध गतिविधियों की सूचना देना, भीड़भाड़ वाले इलाकों में सजग रहना और अफवाहों से बचना—ये छोटी-छोटी बातें बड़ी त्रासदियों को रोक सकती हैं।
लेकिन साथ ही यह भी जरूरी है कि ऐसी घटनाओं को केवल ‘आतंकवाद’ के चश्मे से न देखा जाए। इसके पीछे अगर कोई स्थानीय असंतोष, साइबर नेटवर्क या किसी विदेशी एजेंसी की चाल है, तो उसकी तह तक जाना भी उतना ही आवश्यक है। हमें केवल ‘कौन’ नहीं, बल्कि ‘क्यों’ का जवाब भी तलाशना होगा।
14 साल बाद यह विस्फोट हमें फिर याद दिलाता है कि आतंक कभी पूरी तरह खत्म नहीं होता, वह बस अवसर की प्रतीक्षा करता है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि उस अवसर को हम खुद अपने ढीलेपन से पैदा न करें।
अब वक्त है कि सुरक्षा का तंत्र केवल ‘घटना के बाद’ नहीं, बल्कि ‘घटना से पहले’ सक्रिय हो। जांच एजेंसियों को राजनीतिक दबावों से मुक्त कर, आधुनिक तकनीक और जिम्मेदारी दोनों से लैस करना होगा। और नागरिकों को भी समझना होगा कि सुरक्षा किसी एक विभाग की जिम्मेदारी नहीं, यह एक साझा कर्तव्य है।
अंत में, दिल्ली का यह ताजा धमाका सिर्फ विस्फोट नहीं, एक चेतावनी है, हमारा डर तभी समाप्त होगा जब सुरक्षा केवल नीति नहीं, संस्कृति बन जाएगी।
14 साल बाद फिर हिली दिल्ली, डर और सुरक्षा के बीच सवालों का विस्फोट
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