
सरकार की मनसा पर चकबन्दी कर्मचारी फेर रहे पानी
चिरैयाकोट/मऊ(राष्ट्र की परम्परा) सरकार की मंशा के अनुसार छोटे-छोटे किसानों के जोत को एक जगह समायोजित कर उन्हें कृषि कार्य को बढ़ावा देने के लिए समय-समय पर चकबंदी का आयोजन होता रहा है, लेकिन इसी कार्यक्रम में शासन एवं प्रशासन में अपनी पहुंच बनाने वाले धनबली चकबंदी विभाग में अपना वर्चस्व कायम कर छोटे-छोटे किसानों का जमीन अपने चकों में समायोजित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते हैं, जिसका नतीजा गांव में आपसी मनमुटाव , एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या द्वेश की भावना बढ़ता ही जा रहा है। चकबंदी विभाग एवं गांव के धनबल से परिपूर्ण लोग अपना वर्चस्व कायम करने के लिए गांव में बने चकबंदी कमेटी पर भी अपना मालिकाना हक जमाए हुए हैं, जिसका नतीजा गांव में आपसी तकरार दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है।
आपको बताते चलें कि मऊ जनपद के विकास खण्ड रानीपुर अंतर्गत ग्राम पंचायत अल्देमऊ में चकबंदी प्रक्रिया की शुरुआत लगभग सन् 2000 से गांव में पर्चा 5 का वितरण कर शुरू किया गया लेकिन उसी दौरान गांव के ही धनबल से परिपूर्ण कुछ लोग अपने चकों का नुकसान ना होने पाए जिसके लिए अपने अपने चकों को चक-आउट कराने के प्रयास में, इलाहाबाद हाई कोर्ट तक दस्तक देकर चकबंदी रुकवाने का भरपूर प्रयास किया। वहीं धनबलियों को आधा अधूरा आश्वासन भी मिलता रहा जिस के क्रम में उक्त गांव की चकबंदी प्रक्रिया मंद पड़ गई थी। लगभग 20 वर्षों के अंतराल पर चकबंदी विभाग एवं ग्रामीणों की पहल पर पुनः चकबंदी प्रक्रिया शुरू हुआ। इसी बीच मौके का फायदा उठाते हुए कुछ चकदारों ने गांव में बने पुराने चकमार्गों का दिशा परिवर्तन कराकर अपने लाभ में ग्राम पंचायत एवं राजस्व विभाग को मिलाकर कोई कोर कसर नहीं छोड़ा ।
चकदारों के चक का रकबा कम होने के एहसास पर उन्होंने निचले पायदान से लेकर उच्च पायदान तक भागदौड़ करते हुए अपनी गुहार लगाई, लेकिन धनबलियों के पॉकेट में समाये चकबंदी के कुछ कर्मचारी एवं अधिकारी मूकदर्शक बने रहे,उन्हें किसी के चक का रकबा कम हो उससे कुछ भी लेना देना नही है, सिर्फ और सिर्फ उनका लगाव था तो उन धनबल से परिपूर्ण उन किसानों से जो आज के दौर में देखा जाए तो वह किसान कम पूंजीपति ज्यादा दिखते हैं। खेत में कौन सी फसल कब बोई जाती है उन्हें पता भी नहीं होगा। फिर भी किसान बनकर चकबंदी विभाग को अपने पाकेट में बैठा कर कठपुतली की तरह नचाने में माहिर है जिससे वह अपना स्वार्थ सिद्धि कर ले रहे हैं। इसके बदले भले ही किसी चकदार की जमीन कम क्यों ना हो जाए। सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यह खड़ा हो रहा है कि इसके पूर्व हुई चकबंदी में गांव का रकबा कहीं से भी कम नहीं था, गांव का पूरा क्षेत्रफल मौके पर एवं कागजातों में सही था। यहां सवाल उठता है कि आखिरकार जब पुराने रिकॉर्ड एवं मौके पर रकबा सही था तो सर्वे के दौरान कम कैसे हो गया? कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी धनबली के दबाव में सर्वे के दौरान नक्शा छोटा बड़ा बनाकर पेश कर दिया गया, जिसके कारण छोटे चकदार अपने मूल रकबा से वंचित होते दिख रहे हैं। गांव के रकबा को जमीन निगल गई या आसमान, चकबंदी विभाग के पास इसका नहीं है कोई जवाब।
इसी क्रम में भारतीय सेना के रिटायर्ड सेना नायक राधेश्याम सिंह ने अपने मूल जोत से 2 बीघा का रकबा कम पाए जाने पर इतने मर्माहत दिख रहे हैं कि उनके पूर्वजों द्वारा बनाई गई धरोहर को चकबंदी विभाग किसके दबाव में आकर उनके भावनाओं के साथ छेड़छाड़ किया। आखिर क्यों? बातचीत के दौरान उन्होंने बताया की हमने सेवाकाल के दौरान सीमा की सुरक्षा बड़े ही तत्परता से किया भारत और पाकिस्तान की लड़ाई में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया लेकिन अपने ही पैतृक गांव में अपने पूर्वजों द्वारा बनाई गई जमीन की रक्षा करने में लाचार हो गया हूं। जिस के संदर्भ में उनके द्वारा मऊ जनपद के जिला बंदोबस्त अधिकारी चकबंदी को एक आवेदन भी दिया गया, उन्होंने मौके पर आकर मौके की स्थिति से अवगत होकर पीड़ित किसान भूतपूर्व सैनिक के जख्मों पर मरहम न लगाकर नमक छिड़कते हुए उटपटांग बातें करते हुए चले गए।
मऊ जनपद के जिला बंदोबस्त अधिकारी चकबंदी गोरख प्रसाद ने स्पष्ट लफ्जों में कहा कि जब तुम्हारी जमीन मौके पर कम है तो मैं रबड़ जैसे बढ़ा दूं, यदि कहो तो बनने वाले बंदोबस्त में भी तुम्हारा रकबा कम कर दें। उक्त अधिकारी के धमकी भरे बात सुन वहां खड़े गांव के अन्य किसान भौचक्के हो गए। फलस्वरूप किसी भी पीड़ित किसान ने अपनी समस्या उक्त अधिकारी से कहने का साहस नहीं कर सका। इन सब विसंगतियों को दूर करने हेतु गांव के पूर्व सेनानायक राधेश्याम सिंह एवं कुछ किसानों ने जिलाधिकारी को भी अपनी पीड़ा प्रार्थना पत्र के माध्यम से देकर उम्मीद की गुहार लगाए हैं।
कहने को तो अपना भारत कृषि प्रधान देश कहलाता है लेकिन धनबल, बाहुबल, सत्ता बल, प्रशासन बल के आगे किसानों का दुखड़ा सुनने वाला इस धरती पर आज के समय में कोई नहीं है। कहने को तो किसानों का संगठन भी है लेकिन वह भी एक व्यवसाई रूप धारण कर लिया है ।
आखिरकार लाचार किसान जिसके शरण में जाकर न्याय की उम्मीद लगा सकें। कैसे होगा किसानों की समस्याओं का हल। राजनीतिक पार्टियां भी किसानों को बखूबी मूर्ख बनाते हुए कभी कंधे पर हल लिया किसान तो कभी दो बैलों की जोड़ी के साथ हल जोतता हुआ, किसान का निशान दिखाकर किसानों को अपने निशाने पर लेता रहा है। किसान तपती धूप में खून और पसीना बहा कर शासन-प्रशासन, धनबल, बाहुबल से उत्पीड़ित होते आ रहे हैं।
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