
नई दिल्ली (राष्ट्र की परम्परा डेस्क) चीन की विदेश नीति का सबसे बड़ा आधारभूत सिद्धांत “वन चाइना पॉलिसी” है। इस नीति के अंतर्गत बीजिंग ताइवान को अपना अभिन्न हिस्सा मानता है और विश्व के अन्य देशों से अपेक्षा करता है कि वे इस स्थिति को स्वीकार करें। चीन अपने सभी द्विपक्षीय संबंधों को इसी दृष्टिकोण से जोड़कर देखता है। यही कारण है कि जब भी कोई शीर्ष चीनी नेता भारत की यात्रा करता है या किसी वार्ता में शामिल होता है, वह इस विषय को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अवश्य उठाता है।
भारत यात्रा पर आए चीनी विदेश मंत्री वांग यी की विदेश मंत्री एस. जयशंकर से मुलाकात के बाद चीनी सरकारी समाचार एजेंसी शिन्हुआ ने दावा किया है कि इस मुलाकात के दौरान भारत ने कहा कि ताइवान चीन का हिस्सा है। हालांकि, भारत सरकार ने अब तक ऐसा कोई आधिकारिक बयान जारी नहीं किया है। यही कारण है कि इस खबर को संदिग्ध माना जा रहा है।
विशेषज्ञों के अनुसार भारत की विदेश नीति हमेशा से ताइवान के मुद्दे पर रणनीतिक संतुलन बनाए रखती आई है। भारत ने कभी ताइवान को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता नहीं दी, लेकिन साथ ही वह उसे चीन का हिस्सा बताने से भी बचता है। यही भारत की “संतुलनकारी कूटनीति” है।
भारत और ताइवान के बीच औपचारिक राजनयिक संबंध नहीं हैं, लेकिन आर्थिक, तकनीकी और शैक्षिक क्षेत्रों में सहयोग बेहद सक्रिय है। दोनों देशों के बीच India-Taipei Association और Taipei Economic and Cultural Center in India जैसी संस्थाएँ कार्यरत हैं। ताइवान की कई कंपनियाँ भारत में निवेश कर रही हैं, खासकर इलेक्ट्रॉनिक्स और सेमीकंडक्टर क्षेत्र में। वहीं बड़ी संख्या में भारतीय छात्र ताइवान में उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं।
विदेश नीति विशेषज्ञों का मानना है कि भारत ताइवान के मामले में प्रत्यक्ष रूप से “वन चाइना पॉलिसी” का समर्थन करने से परहेज़ करता है। भारत की यह रणनीति उसे बीजिंग और ताइपे दोनों के साथ कामकाजी संबंध बनाए रखने में मदद करती है।
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