
परमात्मा ने मत्स्य बनाने की सोची,
तब उसने सागर से बात किया,
जब उसने वृक्ष उगाने की सोची,
तब उसने पृथ्वी से राय लिया।
जब प्रभु ने इंसान बनाने की सोची,
तब प्रभु ने ख़ुद ही स्वयं को देखा,
इंसान को सूरत भी अपनी दे दी,
अपनी चाहत भी उसने हमको दी।
मछली का जीवन पानी से होता है,
वृक्षों का जीवन जड़ की मिट्टी में है,
जल से बाहर मछलियाँ मर जाती हैं,
मिट्टी से कटी वृक्ष जड़ें सूख जाती हैं।
वैसे ही परमात्मा से अलग मनुष्य
का रहता कोई अस्तित्व नहीं है,
प्राणतत्व विलग शरीर से होकर
परमात्मा में जाकर मिल जाते हैं।
परमात्मा से आत्मा, वही प्रकृति है,
इंसान का प्रादुर्भाव परमात्मा से है,
जब तक उससे इंसान जुड़ा रहता है,
तभी तक उसका अस्तित्व रहता है।
मछली के बिना जल जल रहता है,
पर जल बिना मत्स्य मर जाते हैं,
मिट्टी बिना वृक्ष के मिट्टी रहती है,
बिन माटी के वृक्ष नहीं रह पाते हैं।
आदित्य मानव भी परमात्मा से ही है,
बिना प्रभू के तो कोई नहीं जीवित है,
जल,थल,पृथ्वी, नभ, पाताल भी,
परमात्मा की प्रकृति द्वारा निर्मित हैं।
कर्नल आदि शंकर मिश्र ‘आदित्य’
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