
दीप हूं मैं,दुश्मनी मेरी अंधेरों से सदा से
व्यर्थ ही यह हवा मुझसे बाहुबल है आजमाती।
भोर लाने के लिए संघर्ष
मेरा अनवरत है
बूंद अन्तिम तैल की
तम से लड़ेगी भीष्म व्रत है
राख जबतक हो न जाए
बुझ सकेगी नहीं बाती। जानता हूं देह मुझको विधाता ने दिया माटी किन्तु पर हित में सदा बहुमूल्य सारी उम्र काटी सांझ हर मुस्कान मेरी जागरण के गीत गाती।
तानकर सीना अमावस से
अंधेरे में खड़ा हूं
नील नभ के वक्ष में
मैं किसी तारे सा जड़ा हूं
भले नश्वर किन्तु दुनिया
गीत मेरे गुनगुनाती। करूं क्या चिन्ता,विधाता ने दिया अमरत्व मुझको सृष्टि का वरदान ही है रोशनी सा तत्व मुझको तपा मेरी यश: काया निशा तम से मुक्ति पाती।
-शिवाकांत मिश्र 'विद्रोही' गोंडा
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