
“आ बैल मुझे मार”
वाली हालत हो गई है,
क्योंकि वो बैठे हुये हैं
“कान में तेल डाल कर”।
उनके तो “आम के आम”
गुठलियों के दाम हैं,
“आसमान पर चढ़ना”
जैसा जीवन हो गया है।
उनका “दिमाग तो सातवें
आसमान पर” ही है,
“तिल का तो ताड़ बना”
देते हैं वो हर बात का।
“पानी में आग लगाने”
में कुछ माहिर होते हैं,
पर ज़रूरत “सौ सुनार की
एक लुहार की” हो गई है।
पर अब तो “अपना हाथ
जगन्नाथ”हो गया है,
शायद “अंत भला तो सब
भला” वाली बात हो,
परंतु “अक्ल का दुश्मन”
जो है उसे कैसे सम्भाले कोई,
अरे भाई वो तो “अन्धों में
काना राजा” जैसा ही है।
अब तो बस “अपने पैरों
पर खड़ा होना” ज़रूरी है,
क्योंकि अब सबकी “आँखें
खुलने” की बात है,
अब ज़्यादा “ खाक छानना”
बिलकुल सही नहीं है,
अब तो बस “खून और
पसीना एक कर देना है।
“खरी खोटी सुनाने” से
कुछ नहीं होने वाला,
किसी को किसी के “खून
का प्यासा” क्यों होना,
क्या फ़ायदा अब तो
“खेत रहना” जैसा ही है,
वरना तो “सिर धुनना”
ही पड़ेगा हम सबको।
क्या “उल्टा चोर कोतवाल
को डांटे” वाली बात है,
अरे अब “पसीना बहाने”
से कुछ नहीं होने वाला,
जब “भाग्य ही सो जाना”
जैसी स्थिति है,
अब तो “सिर मुड़ाते ही
ओले पड़ने लगे हैं ।
“खबर ले ली” होती अगर
पहले ही तो अच्छा था,
“खटाई मे पड़” गया है
अब तो पूरा मसला ही।
वरना कब का “दूध का दूध और
पानी का पानी” हो गया होता,
यह सारा “ढोंग करने”
की ज़रूरत न होती।
जब “रास्ता साफ हो”
तो क्यों पीछे रहना,
“आसमान के तारे तोड़ना”
वाली कोई बात तो है नहीं,
किसी को “चकमा देना”
अच्छा नहीं होता है,
इस प्रकार तो “नाम डुबोना”
वाली कहानी होती है।
आदित्य इतने “पापड़ बेलना”
सबके बस की बात नहीं है,
कोई “ईद का चाँद होना”
चाहे तो क्या किया जाय,
जैसे “गूलर का फूल”
कभी नहीं दिखाई देता,
“हृदय भर आना” जैसा
इस तरह से लगता है।
•कर्नल आदि शंकर मिश्र ‘आदित्य’
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