ज्ञान, संस्कार और सोच के पतन पर एक गंभीर मंथन
आज के भारत में शिक्षा को लेकर सबसे बड़ा और चिंताजनक सवाल यही है—क्या शिक्षा केवल नौकरी का साधन बन चुकी है? एक समय था जब शिक्षा को व्यक्ति के सर्वांगीण विकास, विवेक, नैतिकता और सामाजिक चेतना से जोड़ा जाता था। लेकिन वर्तमान व्यवस्था में शिक्षा का उद्देश्य सिमटकर अंकों, डिग्रियों और प्लेसमेंट पैकेज तक सीमित होता जा रहा है। यह बदलाव केवल शैक्षणिक नहीं, बल्कि सामाजिक और मानसिक स्तर पर भी गहरे प्रभाव छोड़ रहा है।
शिक्षा का बदलता अर्थ: ज्ञान से रोजगार तक
आधुनिक शिक्षा प्रणाली में सफलता का पैमाना अब ज्ञान नहीं, बल्कि रोजगार है। स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक पढ़ाई का अंतिम लक्ष्य “नौकरी मिलेगी या नहीं” बन चुका है। छात्र वही विषय चुनने को मजबूर हैं जिनमें ज्यादा स्कोप है, न कि वे जिनमें उनकी रुचि, क्षमता या समाज के लिए उपयोगिता हो।
यही कारण है कि शिक्षा केवल नौकरी का साधन बनती जा रही है और शिक्षा संस्थान धीरे-धीरे डिग्री उत्पादन केंद्रों में बदलते नजर आते हैं।
रटंत शिक्षा प्रणाली और रचनात्मकता का ह्रास
आज भी हमारी परीक्षा प्रणाली स्मरण शक्ति को बुद्धिमत्ता का पैमाना मानती है। सवाल पूछने, तर्क करने और नई सोच विकसित करने की बजाय किताबों की पंक्तियाँ दोहराने वाले छात्रों को ही सफल माना जाता है।
इस व्यवस्था में:
रचनात्मकता दब जाती है।
आलोचनात्मक सोच विकसित नहीं हो पाती।
नवाचार और अनुसंधान की भावना कमजोर पड़ जाती है।
जब शिक्षा सोचने के बजाय रटने तक सीमित हो जाए, तो उसका उद्देश्य अधूरा रह जाता है।
नौकरी-केंद्रित शिक्षा के गंभीर दुष्परिणाम
जब शिक्षा केवल नौकरी का साधन बन जाती है, तो इसके कई नकारात्मक परिणाम सामने आते हैं:
- मानसिक तनाव और अवसाद
अंक, रैंक और प्रतिस्पर्धा का दबाव छात्रों को मानसिक रूप से कमजोर बना रहा है। कम उम्र में ही तनाव, चिंता और अवसाद आम समस्या बन चुके हैं। - कौशल और व्यवहारिक ज्ञान की कमी
डिग्रियाँ तो मिल जाती हैं, लेकिन उद्योग और समाज की जरूरत के अनुरूप कौशल का अभाव रहता है। यही कारण है कि पढ़े-लिखे युवा भी रोजगार के लिए संघर्ष करते हैं। - नैतिक और सामाजिक मूल्यों का पतन
शिक्षा से संस्कार, संवेदनशीलता और सामाजिक जिम्मेदारी का तत्व कमजोर होता जा रहा है। परिणामस्वरूप, पढ़ा-लिखा समाज होने के बावजूद मानवीय मूल्यों में गिरावट दिखाई देती है। - असंतोषपूर्ण जीवन
रुचि के बजाय मजबूरी में चुना गया करियर जीवनभर असंतोष पैदा करता है। अच्छी नौकरी के बाद भी आत्मसंतुष्टि नहीं मिलती।
शिक्षा बनाम संस्कार: खोता हुआ संतुलन
शिक्षा का उद्देश्य केवल आजीविका नहीं, बल्कि बेहतर इंसान बनाना भी है। लेकिन आज नैतिक शिक्षा औपचारिक पाठ्यक्रम बनकर रह गई है। उसका वास्तविक जीवन से कोई सीधा संबंध नहीं दिखता।
यदि शिक्षा में मानवीय मूल्य, सामाजिक चेतना और नैतिक सोच शामिल न हो, तो समाज केवल तकनीकी रूप से सक्षम लेकिन संवेदनहीन नागरिक तैयार करेगा।
क्या समाधान संभव है?
समस्या जितनी गंभीर है, समाधान भी उतना ही जरूरी है।
शिक्षा में सोच और कौशल का संतुलन: पाठ्यक्रम में व्यवहारिक ज्ञान, जीवन कौशल और आलोचनात्मक सोच को शामिल किया जाए।
रुचि आधारित करियर मार्गदर्शन: छात्रों को उनकी क्षमता और रुचि के अनुसार मार्गदर्शन मिले।
परीक्षा प्रणाली में सुधार: मूल्यांकन में समझ, प्रयोग और नवाचार को महत्व दिया जाए।
मानवीय दृष्टिकोण वाली शिक्षा: शिक्षा को समाज और राष्ट्र निर्माण से जोड़ा जाए, न कि केवल नौकरी से।
शिक्षा का असली उद्देश्य क्या है?
शिक्षा का नौकरी से जुड़ना गलत नहीं है, लेकिन शिक्षा केवल नौकरी का साधन बन जाना खतरनाक है। यदि शिक्षा ज्ञान, विवेक, नैतिकता और आत्मनिर्भरता का माध्यम नहीं बनेगी, तो समाज डिग्रीधारी लेकिन असंतुष्ट और दिशाहीन युवाओं से भर जाएगा।
अब समय आ गया है कि हम शिक्षा को उसके मूल उद्देश्य—बेहतर इंसान, सशक्त समाज और जिम्मेदार राष्ट्र—की ओर फिर से मोड़ें।
