डॉ. सतीश पाण्डेय
महराजगंज(राष्ट्र की परम्परा)। लोकतंत्र की पहचान समानता, पारदर्शिता और निष्पक्षता से होती है, लेकिन आज यह मूलभूत मूल्य राजनीतिक भेदभाव की भेंट चढ़ते दिखाई दे रहे हैं। सत्ता और विपक्ष के बीच बढ़ती खाई ने व्यवस्था की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। विकास, योजनाएं, प्रशासनिक सहयोग और न्याय—जो हर नागरिक का अधिकार है—आज कई बार राजनीतिक निष्ठा की कसौटी पर परखे जाने लगे हैं।
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जमीनी हकीकत यह है कि जिनके पास राजनीतिक पहुंच है, उनके लिए नियम और प्रक्रियाएं सहज हो जाती हैं, जबकि आम नागरिक या विरोधी विचारधारा से जुड़े लोगों के लिए वही प्रक्रिया कठिन बन जाती है। इसका सबसे गंभीर असर समाज के कमजोर वर्गों—गरीबों, किसानों, मजदूरों और मध्यम वर्ग—पर पड़ता है। विकास की उम्मीदें तब कमजोर पड़ जाती हैं जब सहायता और योजनाओं का लाभ पारदर्शिता के बजाय राजनीतिक पहचान पर निर्भर होने लगे। सबसे चिंताजनक स्थिति यह है कि राजनीतिक भेद -भाव का यह प्रभाव अब प्रशासनिक व्यवस्था में भी महसूस होने लगा है। जहां निष्पक्षता पहचान होनी चाहिए, वहीं कई बार दबाव और पक्षधरता हावी होती दिखती है। इससे जनता का भरोसा तंत्र से उठने लगता है और निराशा बढ़ती जाती है। लोकतंत्र मकसद खोने लगता है जब निर्णय जनता के हित में नहीं, बल्कि राजनीतिक गणित के आधार पर किए जाएं।
विशेषज्ञों का मानना है कि यदि राजनीति का उद्देश्य समाज को जोड़ने के बजाय विभाजित करने का माध्यम बनता रहा, तो इसका खामियाजा सिर्फ किसी दल या नेता को नहीं बल्कि पूरे समाज और आने वाली पीढ़ियों को भुगतना पड़ेगा।
आज जरूरत है कि राजनीति अपने मूल मूल्य—सेवा, समानता और पारदर्शिता—की ओर लौटे। शासन हो या विपक्ष, दोनों की जिम्मेदारी है कि लोकतांत्रिक मर्यादाओं का पालन करें और जनता के हित को सर्वोपरि रखें। यदि राजनीतिक भेदभाव की यह प्रवृत्ति समय रहते नहीं थमी, तो लोकतंत्र की जड़ें कमजोर होंगी और सामाजिक समरसता पर भी खतरा मंडराने लगेगा। यह समय राजनीति को जोड़ने वाली शक्ति केल रूप में खड़ा करने का है—तभी लोकतंत्र मजबूत रहेगा और जनता का भरोसा कायम रहेगा।
