
लखनऊ(राष्ट्र की परम्परा डेस्क) भारतीय लोकतंत्र में चुनाव सिर्फ वोट पाने का माध्यम नहीं बल्कि विचारों और नीतियों की प्रतियोगिता भी होते हैं। नारे और भाषण इस लोकतांत्रिक यात्रा के अहम हथियार रहे हैं। नारे जनता तक सीधे पहुँचते हैं और भाषण माहौल बनाते हैं। लेकिन जहाँ पहले नारे प्रेरणादायक, आशावादी और जनकल्याण पर केंद्रित होते थे, वहीं समय के साथ इनकी जगह कटाक्ष, तंज़ और अब तो अभद्र/अमर्यादित शब्दों ने ले ली है।
1984 से 1990 का दौर : सकारात्मक नारों की परंपरा
1984 लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस ने सहानुभूति की लहर में चुनाव लड़ा। नारा था – “एक मजबूत प्रधानमंत्री, एक मजबूत भारत”।
इस दौर के नारे और भाषण विकास, स्थिरता और शांति पर केंद्रित थे। विपक्षी दलों में भी भाषा अपेक्षाकृत मर्यादित रही।
1990 से 2000 : आक्रामक राजनीति की शुरुआत मंडल बनाम कमंडल की राजनीति ने शब्दावली को तेज़ किया।
राम जन्मभूमि आंदोलन के दौरान धार्मिक उन्माद और भावनात्मक नारों का बोलबाला रहा – “जय श्री राम” एक धार्मिक उद्घोष से राजनीतिक हथियार बन गया।
इसी दौरान चुनावी भाषणों में प्रतिद्वंद्वियों को कठोर शब्दों से नवाज़ा जाने लगा।
2000 से 2010 : टेलीविज़न डिबेट और नारे की धार
टीवी चैनलों और 24×7 मीडिया ने राजनीतिक नारों को और धार दी।भाषणों में कटाक्ष बढ़े – जैसे “अंधेर नगरी चौपट राजा”, “मौत का सौदागर” (2007 में कांग्रेस द्वारा गुजरात दंगों को लेकर प्रयुक्त)।
नारे अब विकास और सुशासन से हटकर व्यक्ति-विशेष पर केंद्रित होने लगे।
2010 से 2020 : सोशल मीडिया का युग और भाषा का पतन
सोशल मीडिया ने “ट्रोल संस्कृति” को जन्म दिया। नारे और भाषण अब व्यक्तिगत हमलों तक पहुँच गए – “चौकीदार चोर है”, “50 इंच की छाती”, “नकली हिंदू”, “खून की दलाली”।
सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों ने ही एक-दूसरे के खिलाफ कटु और असंवेदनशील शब्दों का प्रयोग किया।
2020 से 2025 : अभद्रता का चरम कोरोना महामारी और किसान आंदोलन के दौरान नेताओं की बयानबाज़ी और अधिक असंवेदनशील हुई।
व्यक्तिगत हमले अब परिवार तक पहुँच गए – हाल का उदाहरण प्रधानमंत्री की दिवंगत माँ पर टिप्पणी है, जिसने राजनीति की भाषा को और अधिक शर्मनाक स्तर पर पहुँचा दिया।
चुनावी नारों और भाषणों में अब मुद्दों से ज्यादा गालियाँ, अपशब्द और व्यक्ति-परक हमले शामिल हो चुके हैं।
वर्षवार प्रमुख नारे और अमर्यादित बयान
वर्ष/दौर प्रमुख नारे/भाषण अमर्यादित/विवादित बयान1984 “एक मजबूत प्रधानमंत्री, एक मजबूत भारत” (कांग्रेस) –
1989 “राजा नहीं फकीर है, देश की तक़दीर है” (वी.पी. सिंह) –
1990-92 “जय श्री राम” (राम मंदिर आंदोलन) धार्मिक उन्मादपूर्ण बयान
1996 “सबका साथ, सबका विकास” जैसी प्रारंभिक धारणाएँ –
2004 “भारत उदय” (एनडीए), “आम आदमी” (कांग्रेस) –
2007 – “मौत का सौदागर” (कांग्रेस द्वारा मोदी पर)
2014 “अच्छे दिन आने वाले हैं” (बीजेपी) –
2016-17 – “खून की दलाली” (राहुल गांधी)
2019 “मैं भी चौकीदार” (बीजेपी) “चौकीदार चोर है” (कांग्रेस)
2021 – “50 इंच की छाती” (बीजेपी नेता), “नकली हिंदू” (विपक्ष)
2023-24 – प्रधानमंत्री की दिवंगत माँ पर आपत्तिजनक टिप्पणी
नारे और भाषणों में गिरावट के कारण
वोट बैंक की राजनीति – तात्कालिक लाभ के लिए भावनाएँ भड़काना। मीडिया और सोशल मीडिया का दबाव – उत्तेजक बयान तुरंत वायरल होते हैं।
विचारधारात्मक टकराव – जाति, धर्म और क्षेत्रीय राजनीति ने शब्दावली को विषाक्त किया।
राजनीतिक शुचिता का अभाव – दलों में आपसी मर्यादा घटती गई।
लोकतंत्र पर असर जनता के असली मुद्दे – विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार – चर्चा से बाहर होते गए।
युवा पीढ़ी राजनीति को गाली-गलौज का अखाड़ा मानने लगी।
समाज में वैमनस्य और विभाजन की भावना मजबूत हुई।
सुधार की राह
चुनाव आयोग द्वारा कड़ी कार्यवाही – आपत्तिजनक बयानों पर तत्काल बैन और जुर्माना।
पार्टियों के आचार संहिता में कठोर नियम।
मीडिया और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स की जिम्मेदारी – गाली/अमर्यादित शब्दों को amplify न करना।
जनता की सजगता – ऐसे नेताओं को वोट न देना जो भाषा की मर्यादा लांघते हैं।
नैतिक शिक्षा और राजनीतिक प्रशिक्षण – लोकतांत्रिक मूल्यों पर जोर।
1984 के प्रेरणादायी और विकासोन्मुख नारों से लेकर 2025 की अभद्र और अपमानजनक भाषा तक का यह सफ़र लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है। जब नारे और भाषण गाली-गलौज तक सीमित हो जाएं तो लोकतंत्र की आत्मा घायल होती है। जरूरत है कि राजनीतिक दल और नेता नकारात्मकता छोड़कर सकारात्मक एजेंडे और मर्यादित भाषा को अपनाएँ। यही लोकतांत्रिक भारत की सच्ची पहचान और मजबूती होगी।