जब प्रकाश ने अपना स्वरूप साधा और जीवन को धर्म का मार्ग मिला
सूर्य केवल आकाश में चमकता हुआ अग्नि-पिंड नहीं है, वह सृष्टि की चेतना, काल का नियंत्रक और धर्म का प्रत्यक्ष साक्षी है। वेदों में सूर्य को “आत्मा जगतस्तस्थुषश्च” कहा गया है — अर्थात स्थावर और जंगम, दोनों संसारों की आत्मा। एपिसोड 2 में हमने जाना कि सूर्य की तीव्रता जब असंतुलित होती है तो वह संहार बन जाती है और जब संयमित होती है, तभी वह जीवन-रक्षक बनती है। अब एपिसोड 3 में हम उस दिव्य क्षण को देखते हैं जब सूर्य ने अपने तेज को संयमित कर, सृष्टि के कल्याण का संकल्प लिया और स्वयं को ‘धर्म-सूर्य’ के रूप में प्रतिष्ठित किया।
शास्त्रों के अनुसार, एक समय ऐसा भी आया जब पृथ्वी सूर्य की असहनीय ऊष्मा से झुलसने लगी। वनस्पति मुरझाने लगे, नदियां सिकुड़ने लगीं और जीव-जंतु व्याकुल हो उठे। देवताओं ने ब्रह्मा से पुकार की कि यह पृथ्वी के विनाश का कारण बन सकता है। तब ब्रह्मा ने सूर्य से कहा, “तुम्हारी ऊर्जा ही जीवन है, किंतु यह तभी कल्याणकारी होगी जब उसमें संतुलन होगा।” यह वही क्षण था, जब सूर्य ने पहली बार अपने भीतर झांका और स्वयं को एक तपस्वी की भांति संयमित किया।
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तभी विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा का प्रसंग आता है। शास्त्रों में वर्णन है कि संज्ञा सूर्य के तेज को सहन नहीं कर पाईं और छाया को अपना स्थान देकर चली गईं। यह घटना मात्र पारिवारिक नहीं, गूढ़ दार्शनिक अर्थ रखती है। यह दर्शाती है कि प्रेम केवल ऊष्मा नहीं, शीतलता और सहअनुभूति भी मांगता है। सूर्य ने तब अपने तेज का एक अंश त्याग कर उसे संयमित कर लिया, जिससे संज्ञा पुनः लौट सकें। यही वह क्षण था, जब सूर्य ने त्याग की सर्वोच्च परिभाषा को स्थापित किया।
ऋग्वेद में सूर्य को ‘मित्र’ कहा गया है — जो सबका मित्र है, बिना भेदभाव प्रकाश देता है। वह राजा को भी प्रकाश देता है और रंक को भी, पवित्र को भी और अपवित्र को भी। यही सूर्य की समानता है। यही उसकी सबसे बड़ी महिमा भी है। उसका प्रकाश न किसी जाति को देखता है, न किसी पंथ को। वह केवल कर्तव्य जानता है — प्रकाशित करना।
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भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि “मैं सूर्य में स्थित तेज हूँ।” इसका अर्थ केवल प्रतीकात्मक नहीं बल्कि दार्शनिक है। सूर्य का अनुशासन ही कर्मयोग का सार है। हर दिन बिना रुके, बिना शिकायत किए, वह अपना कर्तव्य निभाता है। मनुष्य को भी यही संदेश देता है कि जब जीवन में अंधकार आए तो अपने भीतर सूर्य का जन्म कर, कर्तव्य के पथ पर डटे रहो।
अथर्ववेद में सूर्य को आरोग्य का मूल स्रोत बताया गया है। सूर्य किरणें रोगों का नाश करती हैं, शरीर में ऊर्जा का संचार करती हैं और मन को भी प्रकाशित करती हैं। भारत की प्राचीन सूर्य-उपासना — जैसे योग में सूर्यनमस्कार, चिकित्सा में सूर्य-स्नान और आध्यात्म में सूर्य ध्यान — ये सब उसी ज्ञान का विस्तार हैं, जिसे ऋषियों ने हजारों वर्ष पूर्व जान लिया था।
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रामायण में यह प्रसंग आता है कि जब भगवान राम लंका पर विजय के लिए रणभूमि में खड़े थे और कुछ क्षणों के लिए निराश हो उठे, तब अगस्त्य ऋषि ने उन्हें आदित्य हृदय स्तोत्र का उपदेश दिया। सूर्य की स्तुति करते ही राम के भीतर ऐसी ऊर्जा का संचार हुआ कि उन्होंने रावण का अंत कर दिया। यह कथा प्रमाण है कि सूर्य केवल बाहरी ऊर्जा नहीं, आंतरिक साहस और आत्मबल का भी स्रोत है।
सूर्य की यह शास्त्रोक्त कथा हमें यह भी सिखाती है कि शक्ति, यदि अहंकार से जुड़ जाए, तो विनाश बन जाती है और यदि धर्म व संयम से जुड़ जाए, तो सृष्टि का आधार बन जाती है। आज के युग में, जब मनुष्य भौतिक प्रगति की दौड़ में प्रकृति का संतुलन बिगाड़ कर स्वयं को सूर्य से भी अधिक शक्तिशाली मानने लगा है, सूर्य की यह कथा एक चेतावनी भी है और मार्गदर्शन भी।
सूर्य हमें सिखाता है कि चमकना जरूरी है, लेकिन जलाना नहीं। आगे बढ़ना जरूरी है, लेकिन कुचल कर नहीं। अपनी ऊर्जा को पहचानना जरूरी है, लेकिन उसका दुरुपयोग करना विनाश की ओर पहला कदम है।
एपिसोड 3 की यह शास्त्रोक्त कथा हमें एक गहरे सत्य की ओर ले जाती है — “ऊर्जा का असली धर्म संयम है।” सूर्य ने जब यह समझ लिया, तभी वह देव नहीं, पूज्य बन गया। तभी वह केवल आकाश का दीपक नहीं रहा, बल्कि आत्मा का प्रकाश बन गया।
आज भी जब सूर्योदय होता है, तो वह केवल दिन का आरंभ नहीं करता, बल्कि वह हर जीव को एक नया संदेश देता है — कि अंधकार चाहे जितना घना हो, यदि भीतर सूर्य जागृत हो जाए, तो प्रकाश स्वयं मार्ग बना लेता है।
