Tuesday, October 28, 2025
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वार्ता में नतीजा नहीं, तनाव बरकरार: इस्तांबुल से खाली हाथ लौटे पाकिस्तान और अफगानिस्तान

“इस्तांबुल से बिना समाधान लौटी उम्मीदें: पाकिस्तान-अफगान शांति वार्ता फिर अधर में, सीमा पर बढ़ी गोलीबारी और अविश्वास की दीवारें”


इस्तांबुल (राष्ट्र की परम्परा डेस्क) पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच चली तीन दिवसीय शांति वार्ता सोमवार को बिना किसी ठोस नतीजे के समाप्त हो गई। तुर्की की मेज़बानी और क़तर की मध्यस्थता में हुई यह बातचीत दक्षिण एशिया के लिए उम्मीद की किरण मानी जा रही थी, पर अंततः यह उम्मीदें अधर में लटक गईं।

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इन वार्ताओं का उद्देश्य था 19 अक्टूबर को घोषित युद्धविराम को स्थायी बनाना और सीमा पर लगातार बढ़ रहे संघर्षों को रोकना। लेकिन चर्चाओं के बावजूद न तो कोई संयुक्त बयान जारी हुआ और न ही विश्वास की कोई नई इमारत खड़ी हो सकी।पाकिस्तानी अधिकारियों का आरोप है कि अफगान प्रतिनिधिमंडल बार-बार काबुल से निर्देश ले रहा था, जिससे वार्ता की गति धीमी पड़ गई। उन्होंने कहा कि अफगान पक्ष “निर्णय लेने की स्थिति” में नहीं था, जबकि पाकिस्तान ने तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) के खिलाफ ठोस कार्रवाई की मांग दोहराई।

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इसी बीच, पाकिस्तान सेना ने दावा किया कि बातचीत के दौरान ही सीमा पार दो बड़े घुसपैठ प्रयासों को नाकाम करते हुए 25 आतंकवादियों को मार गिराया गया। इस मुठभेड़ में पाँच पाकिस्तानी सैनिकों की भी मौत हुई, हालांकि इन दावों की स्वतंत्र पुष्टि अभी नहीं हो सकी है।अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने मलेशिया में आयोजित आसियान शिखर सम्मेलन में इस संकट पर टिप्पणी करते हुए कहा कि वह इसे “बहुत जल्द” सुलझाने की कोशिश करेंगे। उन्होंने इस्लामाबाद और काबुल के बीच चल रहे शांति प्रयासों की सराहना की और “स्थायी समाधान” की अपील की।

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तुर्की और क़तर, जिन्होंने इस वार्ता की मेज़बानी की, अब यह सुनिश्चित करने में जुटे हैं कि संवाद पूरी तरह टूटे नहीं। क़तर के एक अधिकारी के मुताबिक, “यह प्रक्रिया कठिन है, लेकिन संवाद जारी रहना ही सबसे बड़ा संकेत है कि उम्मीद अभी जिंदा है।”विश्लेषकों के अनुसार, इस्तांबुल की वार्ता सिर्फ दो देशों के बीच संवाद नहीं थी, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया की स्थिरता की परीक्षा थी। पाकिस्तान और अफगानिस्तान दोनों दशकों से आतंकवाद, अस्थिरता और सीमा विवादों में उलझे हैं।

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2021 में तालिबान के सत्ता में आने के बाद पाकिस्तान को उम्मीद थी कि काबुल का रवैया उसके प्रति सहयोगी रहेगा। परंतु हुआ इसके उलट — अफगान धरती से टीटीपी के हमले और बढ़ गए, जिससे पाकिस्तान की पश्चिमी सीमा फिर असुरक्षित हो गई।दोनों देशों की मांगें भी एक-दूसरे से टकराती दिखीं। पाकिस्तान चाहता है कि अफगानिस्तान अपनी जमीन का इस्तेमाल पाकिस्तान-विरोधी आतंकवाद के लिए न होने दे, जबकि अफगान तालिबान ने पाकिस्तानी सीमा सुरक्षा के “मानवीय पहलू” पर सवाल उठाए।दरअसल, असली समस्या दोनों देशों के बीच गहरी “विश्वास की कमी” है। यही अविश्वास संवाद को आगे बढ़ने से रोकता है।

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इस बीच तुर्की और क़तर केवल मध्यस्थ नहीं, बल्कि इस्लामी दुनिया में नई कूटनीतिक धुरी के रूप में उभर रहे हैं। वे यह संदेश देना चाहते हैं कि मुस्लिम राष्ट्र भी बिना पश्चिमी हस्तक्षेप के अपने मतभेद सुलझा सकते हैं।भारत के लिए यह स्थिति विशेष महत्व रखती है। एक ओर पाकिस्तान का पश्चिमी मोर्चा व्यस्त होने से पूर्वी सीमा पर दबाव कम हो सकता है, लेकिन इतिहास बताता है कि पाकिस्तान अक्सर अपने आंतरिक संकटों का दोष भारत पर डालने की कोशिश करता है।

भारत ने पिछले दो दशकों में अफगानिस्तान में भारी निवेश किया है — स्कूल, सड़कें, अस्पताल और संसद भवन तक। यदि अफगानिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता बनी रही, तो भारत की “सॉफ्ट पावर” और मध्य एशिया तक पहुँच दोनों प्रभावित होंगी।वहीं चीन, CPEC (चीन-पाक आर्थिक गलियारा) के ज़रिए अपने प्रभाव को और मज़बूत कर रहा है और अफगानिस्तान में भी निवेश बढ़ा रहा है। इससे भारत के लिए एक नया सुरक्षा समीकरण बनता जा रहा है।

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टीटीपी और इस्लामिक स्टेट-खुरासान (IS-K) जैसे गुटों की गतिविधियाँ यदि अफगानिस्तान से नियंत्रित नहीं हुईं, तो यह भारत की सुरक्षा नीति के लिए गंभीर चुनौती होगी।इस्तांबुल संवाद का निष्कर्षहीन रहना यह दर्शाता है कि दक्षिण एशिया अभी भी पुराने अविश्वासों और भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धाओं से मुक्त नहीं हो पाया है। पाकिस्तान-अफगान सीमा आज भी बारूद के ढेर पर बैठी है — बस एक चिंगारी पूरे क्षेत्र को हिला सकती है।

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भारत के लिए यही समय है कि वह संयम, कूटनीति और रणनीतिक सजगता से काम ले — न तो अति-प्रतिक्रिया, न ही निष्क्रियता।
शांति केवल वार्ता से नहीं आती, उसके लिए ईमानदारी, भरोसा और दीर्घकालिक दृष्टि की आवश्यकता होती है।
इस्तांबुल संवाद भले ही निष्कर्षहीन रहा हो, लेकिन यह याद दिलाता है कि इस क्षेत्र की नियति अभी भी उसके अपने निर्णयों पर टिकी है।

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