भारत तेज़ी से आगे बढ़ रहा है, लेकिन क्या आम भारतीय परिवार भी उसी गति से आगे बढ़ पा रहें है?- एक समग्र अंतरराष्ट्रीय विश्लेषण
“GDP से आगे सोचने का समय: जब तक शिक्षा सस्ती और इलाज सुलभ नहीं, तब तक अधूरी है भारत की तरक्की”
सस्ती शिक्षा, सस्ता इलाज और कैंसर पर निर्णायक वार ज़रूरी – भारत की असली तरक्की का रास्ता,परिवार केंद्रित नीतियों से होकर गुजरता है?
गोंदिया – वैश्विक स्तरपर भारत आज जब देश वैश्विक मंचों पर आर्थिक शक्ति, तकनीकी नेतृत्व और कूटनीतिक प्रभाव की बात कर रहा है, उसी समय करोड़ों परिवारों के सामने एक साझा चिंता खड़ी है,बच्चों की शिक्षा कितनी महंगी होगी,बीमारी आने पर इलाज कैसे होगा और कैंसर जैसी भयावह बीमारी से कैसे निपटा जाएगा? यही तीन प्रश्न आज भारत की सामाजिक सच्चाई औरनीति-निर्माण की कसौटी बन चुके हैं।भारत इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में जिस ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ा है, वहां आर्थिक वृद्धि, तकनीकी प्रगति और वैश्विक प्रभाव के साथ-साथ एक बड़ा प्रश्न लगातार उभर रहा है,क्या यह विकास आम नागरिक के जीवन को वास्तव में सुरक्षित, सुलभ और सम्मानजनक बना पा रहा है?मैं एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र यह मानता हूं कि किसी भी राष्ट्र की वास्तविक प्रगति का आकलन उसके सकल घरेलू उत्पाद या वैश्विक रैंकिंग से नहीं,बल्कि इस बात से किया जाना चाहिए?कि वहां का एक साधारण परिवार कितनी सहजता से शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी आवश्यकताओं तक पहुंच पा रहा है। भारत में आज सस्ती शिक्षा और सस्ता इलाज केवल नीतिगत मुद्दे नहीं, बल्कि करोड़ों परिवारों के अस्तित्व भविष्य और सामाजिक स्थिरता से जुड़े जीवन-मरण के प्रश्न बन चुके हैं।अभी दो दिन पूर्व आरएसएस के सरसंघ चालक नें भी एक कार्यक्रम में कहा सस्ती शिक्षा व इलाज हर व्यक्ति की जरूरत है,कैंसर मरीज के अलावा उसके परिवार पर भी भयंकर त्रासदी लाता है।सभ्य समाज की आधारशिला – संयुक्त राष्ट्र,विश्व बैंक और विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर यह बार-बार स्वीकार किया गया है कि शिक्षा और स्वास्थ्य किसी भी देश की मानव पूंजी का मूल स्तंभ होते हैं।शिक्षा व्यक्ति को सोचने, निर्णय लेने और समाज में योगदान करने की क्षमता देती है, जबकि स्वास्थ्य उसे उस क्षमता का उपयोग करने योग्य बनाता है। यदि इनमें से कोई एक भी कमजोर हो, तो विकास की पूरी संरचना असंतुलित हो जाती है। भारत में समस्या यह नहीं है कि शिक्षा और स्वास्थ्य की नीतियां नहीं हैं, बल्कि यह है कि उनकी लागत आम नागरिक की आय से कहीं अधिक तेजी से बढ़ी है अंतरराष्ट्रीय अनुभव और भारत की स्थिति यह हैं क़ि फिनलैंड, जर्मनी और नॉर्वे जैसे देशों में शिक्षा को सार्वजनिक निवेश के रूप में देखा जाता है,जहां उच्च शिक्षा तक लगभग निःशुल्क पहुंच उपलब्ध है।इसके विपरीत भारत में सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों की गुणवत्ता और संख्या मांग के अनुपात में कम है, जिससे निजी क्षेत्र को अत्यधिक विस्तार का अवसर मिला। यह स्थिति सामाजिक असमानता को और गहरा करती है, क्योंकि प्रतिभा के बजाय आर्थिक क्षमता शिक्षा के अवसर तय करने लगती है।यह जानकारी मीडिया के संज्ञान से दी गई है।
साथियों बात अगर हम शिक्षा और स्वास्थ्य विकास नहीं जीवन का प्रश्न हैं, इसको समझने की करें तो, किसी भी देश में शिक्षा और स्वास्थ्य केवल सेवाएं नहीं होतीं,वे नागरिक की गरिमा, अवसर और भविष्य की गारंटी होती हैं। भारत में सस्ती शिक्षा और सस्ता इलाज अब केवल मध्यम वर्ग की मांग नहीं रहे, बल्कि गरीब, निम्न-मध्यम और यहां तक कि स्थिर आय वाले परिवारों के लिए भी जीवन की प्राथमिक जरूरत बन चुके हैं।एक बच्चा यदि पढ़ नहीं पाता, तो उसका भविष्य सीमित हो जाता है। और यदि कोई बीमार पड़ जाए, तो पूरा परिवार आर्थिक और मानसिक संकट में डूब जाता है।महंगी होती शिक्षा: सपनों पर भारी फीस-भारत में शिक्षा को संविधान ने मौलिक अधिकार माना, लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि अच्छी शिक्षा अब क्षमता से अधिक खर्च मांग रही है।निजी स्कूलों की फीस, किताबें, कोचिंग, प्रतियोगी परीक्षाएं,इन सबने मिलकर शिक्षा को एक दीर्घकालिक आर्थिक दबाव में बदल दिया है।आज एक औसत परिवार अपने बच्चे की पढ़ाई के लिए कर्ज लेने को मजबूर है। यह स्थिति केवल परिवार की बचत नहीं, बल्कि समाज की समानता को भी कमजोर करती है।
साथियों बात अगर हम स्वास्थ्य सेवा:इलाज या आर्थिक तबाही? इसको समझने की करें तो,भारत में बीमारी केवल स्वास्थ्य संकट नहीं, बल्कि आर्थिक आपदा बन चुकी है।विश्व स्वास्थ्य संगठनों के अनुसार, इलाज पर होने वाला अधिकांश खर्च सीधे परिवार की जेब से जाता है। इसका अर्थ है,एक गंभीर बीमारी पूरे परिवार को वर्षों पीछे धकेल सकती है।सरकारी योजनाएं मौजूद हैं, लेकिन उनकी पहुंच, क्षमता और भरोसे को लेकर अब भी बड़े सवाल बने हुए हैं।कैंसर: एक व्यक्ति की नहीं, पूरे परिवार की लड़ाई-कैंसर आज भारत में तेजी से बढ़ती बीमारी बन चुका है। बदलती जीवनशैली, प्रदूषण, तंबाकू, तनाव और देर से जांच,इन सबने मिलकर कैंसर को राष्ट्रीय चुनौती बना दिया है।कैंसर का इलाज लंबा, महंगा और मानसिक रूप से थकाने वाला होता है। कई बार परिवार का कमाने वाला सदस्य बीमार पड़ता है और दूसरा सदस्य देखभाल के लिए नौकरी छोड़ देता है।इस तरह कैंसर एक व्यक्ति की बीमारी नहीं, बल्कि पूरे परिवार का संघर्ष बन जाता है।रोकथाम ही सबसे सस्ता इलाज-अंतरराष्ट्रीय अनुभव साफ बताते हैं,कैंसर की रोकथाम और समय पर जांच इलाज से कहीं अधिक प्रभावी और सस्ती है।नियमितस्क्रीनिंग,जन-जागरूकता, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की मजबूती और जीवनशैली में सुधार से कैंसर के खतरे को काफी हद तक कम किया जा सकता है।भारत को अब इलाज-केंद्रित सोच से आगे बढ़कर रोकथाम-केंद्रित स्वास्थ्य नीति अपनानी होगी।भारत में स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च दुनिया के कई देशों की तुलना में जेब से सीधे अधिक है। एक गंभीर बीमारी अक्सर केवल रोगी को नहीं, बल्कि पूरे परिवार को आर्थिक रूप से बीमार कर देती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, भारत में हर साल लाखों लोग केवल इलाज के खर्च के कारण गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं। यह तथ्य अपने- आप में बताता है कि सस्ता इलाज केवल स्वास्थ्य नीति का प्रश्न नहीं, बल्कि गरीबी उन्मूलन और सामाजिक सुरक्षा का अनिवार्य हिस्सा है।कैंसर, एक बीमारी नहीं, एक सामाजिक संकट हैं, पिछले कुछ वर्षों में भारत में कैंसर के मामलों में तेज़ वृद्धि दर्ज की गई है। शहरीकरण, प्रदूषण, असंतुलित आहार, तंबाकू सेवन,तनावपूर्ण जीवन शैली और देर से निदान,ये सभी मिलकर कैंसर को एक राष्ट्रीय स्वास्थ्य आपातकाल के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। कैंसर का असर केवल शरीर तक सीमित नहीं रहता; यह परिवार की मानसिक शांति, आर्थिक स्थिरता और सामाजिक संरचना को गहराई से प्रभावित करता है।कैंसर इलाज की लागत और परिवार पर प्रभावभारत में कैंसर का इलाज अत्यंत महंगा है।कीमोथेरेपी, रेडियोथेरेपी और सर्जरी की लागत कई परिवारों की सालों की आय के बराबर होती है। इलाज के दौरान परिवार का कोई सदस्य अक्सर काम छोड़ने को मजबूर होता है, जिससे आय और घट जाती है। इस प्रकार कैंसर एक व्यक्ति की बीमारी न रहकर पूरे परिवार की भयंकर सामूहिक त्रासदी बन जाता है।
साथियों बात अगर हम शिक्षा और स्वास्थ्य का सीधा सम्बंध इसको समझने की करें तो,भारत में सस्ती शिक्षा: सपना या सुलभ अधिकार?स्वतंत्रता के समय भारत ने शिक्षा को सामाजिक न्याय का माध्यम माना था। संविधान के अनुच्छेद 21-ए ने शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया,किंतु व्यवहारिक स्तरपर उच्च शिक्षा और व्यावसायिक शिक्षा लगातार महंगी होती चली गई। निजी स्कूलों और कॉलेजों की बढ़ती फीस, कोचिंग संस्कृति, और प्रतियोगी परीक्षाओं की लागत ने शिक्षा को एक आर्थिक बोझ में बदल दिया है। आज एक मध्यम वर्गीय परिवार के लिए अपने बच्चे को अच्छी शिक्षा दिलाना कई बार जीवन की सारी बचत और कर्ज पर निर्भर हो जाता है। शिक्षित समाज अधिक स्वास्थ्य- जागरूक होता है।स्वस्थ नागरिक बेहतर शिक्षा और उत्पादकता में योगदान देता है।और जब बीमारी का बोझ कम होता है, तो परिवार शिक्षा, नवाचार और भविष्य पर निवेश कर पाता है।यानें सस्ती शिक्षा और सस्ता इलाज मिलकर एक मजबूत राष्ट्र की नींव रखते हैं।परिवार पर पड़ता तिहरा असर-जब शिक्षा महंगी होती है, इलाज महंगा होता है और कैंसर जैसी बीमारी दस्तक देती है,तो असर केवल एक व्यक्ति तक सीमित नहीं रहता। (1) परिवार की बचत खत्म होती है (2) बच्चों की पढ़ाई प्रभावित होती है (3) मानसिक तनाव पीढ़ियों तक असर डालता है,यही कारण है कि ये मुद्दे केवल सामाजिक नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा और विकास से जुड़े प्रश्न बन जाते हैं।
साथियों बात अगर हम नीति- निर्माताओं के सामने स्पष्ट संदेश इसको समझने की करें तो,अब समय आ गया है कि(1) शिक्षा को खर्च नहीं, राष्ट्रीय निवेश माना जाए (2) स्वास्थ्य को दया नहीं, अधिकार समझा जाए (3) कैंसर को बीमारी नहीं बल्कि सख़्त नीति आपातकाल की तरह देखा जाए। भारत की वास्तविक शक्ति उसके परिवार हैं, और परिवार तभी मजबूत होंगे, जब शिक्षा सुलभ और इलाज सस्ता होगा।भारत की वैश्विक छवि और आंतरिक सच्चाई भारत विश्वगुरु बनने की बात करता है। लेकिन कोई भी देश तब तक नैतिक नेतृत्व नहीं कर सकता, जब तक उसके नागरिक शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए संघर्षरत हों।सस्ती शिक्षा, सस्ता इलाज और कैंसर पर ठोस रणनीति यही भारत को केवल आर्थिक नहीं, बल्कि मानवीय महाशक्ति बनाएगी।
अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर इसका विशेषण करें तो हम पाएंगे क़ि,अब देरी की गुंजाइश नहीं, सस्ती शिक्षा, सस्ता इलाज और कैंसर की प्रभावी रोकथाम ये तीनों मिलकर भारत की मानव- केंद्रित विकास यात्रा को सही दिशा दे सकते हैं। यही वह रास्ता है, जो भारत को केवल आर्थिक महाशक्ति नहीं,बल्कि एक स्वस्थ, शिक्षित और संवेदनशील राष्ट्र बना सकता है। यदि अभी ठोस, वैज्ञानिक और मानवीय रणनीति नहीं अपनाई गई,तो आने वाले वर्षों में इसकी कीमत केवल आंकड़ों में नहीं, बल्कि टूटते परिवारों और बिखरते सपनों में चुकानी पड़ेगी। सस्ती शिक्षा, सस्ता इलाज और कैंसर की प्रभावी रोकथाम बजट 2026 में ही रणनीति दिखने की जरूरत है यही भारत की अगली बड़ी छलांग का आधार है।ऐसी अपेक्षा हम करते हैं
-संकलनकर्ता लेखक – एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया
क़र विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार अंतरराष्ट्रीय लेखक चिंतक कवि संगीत माध्यमा सीए
