
बरहज/देवरिया(राष्ट्र की परम्परा)
दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय गोरखपुर में पिछले एक पखवाड़े से जिस तरह की अराजकता और अव्यवस्था फैली हुई है इसके लिए क्या मात्र छात्र जिम्मेदार हैं ?आखिर इस समस्या पर गोरखपुर मंडल के जनप्रतिनिधियों की रहस्यमई चुप्पी का कारण क्या है ?विश्वविद्यालय के छात्रावासों में 1 वर्ष का मेश शुल्क लेकर 4 माह भी मेस न चलाना ,मूल्यांकन केंद्रों पर बिजली और पानी का पूरी तरह अभाव, भुगतान में लेटलतीफी पिछले 3 वर्षों में छात्रों से शुल्क में अप्रत्याशित वृद्धि, कभी भी समय से कार्यालय में बैठकर छात्रों और शिक्षकों की समस्याओं को न सुनना, तानाशाह कुलपति प्रोफेसर राजेश सिंह की दिनचर्या बन गई है ।ऐसे में इस पूरी अव्यवस्था के जिम्मेदार अपने मनमानी कार्य प्रणाली के लिए कार्यभार ग्रहण करने के दिन से ही चर्चित, कुलपति के विरुद्ध ठोस कार्यवाही कब होगी ?इस पर गोरखपुर मंडल के प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति की नजर टिकी हुई है ।कुलपति के तानाशाही रवैये और मनमाना पूर्ण व्यवहार के विरुद्ध विश्वविद्यालय के शिक्षक आवाज उठाने से कतराते रहे हैं ।गोरखपुर विश्वविद्यालय संबद्ध महाविद्यालय शिक्षक संघ ने सदैव इनके इन कृतियों का विरोध किया ।जायज मांगों को लेकर आंदोलन करने वाले शिक्षकों और छात्रों के प्रजातांत्रिक विरोध को भी कुलपति, तानाशाह शासक की तरह दबाने में विश्वास रखते हैं ।जिससे विश्वविद्यालय का माहौल न केवल खराब हुआ है बल्कि पठन-पाठन का वातावरण भी दूषित हुआ है ।प्रत्येक सेमेस्टर में अंकपत्र का शुल्क लेना प्रत्येक सेमेस्टर में पंजीकरण के नाम पर प्रति छात्र ढाई सौ रुपये की वसूली करना, माइनर कोर्स के नाम पर प्रति छात्र ₹500 की वसूली, नामांकन शुल्क अलग से ,राष्ट्र गौरव ,दीनदयाल उपाध्याय और नाथ पंथ की समुचित पढ़ाई की व्यवस्था किए बगैर बार-बार विद्यार्थियों को परीक्षा की आग में झोंकना, कुलपति की दिनचर्या में शुमार हो गया है। ऐसे में आक्रोश तो 1 दिन फूटना ही था ।गोरखपुर विश्वविद्यालय संबद्ध महाविद्यालय शिक्षक संघ विश्वविद्यालय में किसी भी प्रकार की हिंसा का विरोध करता है, लेकिन आखिर इसके लिए जिम्मेदार कौन है ?इस पर कब विचार होगा ?शिक्षकों और छात्रों को केवल आश्वासन की घुट्टी पिलाकर महाविद्यालयों को धन संग्रह का केंद्र बना देना और छात्र छात्राओं से धन उगाही का कोई भी मौका ना चूकना कहीं से भी विश्वविद्यालय परिवार के मुखिया का संवेदनशील होना साबित नहीं करता ।बीते दिनों विश्वविद्यालय परिसर में हुई घटना दुखद है लेकिन परिवार के मुखिया के रूप में जो संवेदनशीलता और परस्पर संवाद की पहल कुलपति को दिखानी चाहिए थी कहीं ना कहीं उसमें चूक हुई है ।आउटसोर्सिंग के कर्मचारियों को भुखमरी के कगार पर पहुंचा देना ,विश्वविद्यालय के वरिष्ठ प्रोफेसरों के साथ अपमानजनक व्यवहार करना ,केवल 5 शिक्षकों को ही सारे महत्वपूर्ण पदों पर आसीन करना भी अराजकता के मूल में है। यदि आंदोलित छात्रों और शिक्षकों से समय रहते संवाद किया गया होता और संवेदनशीलता का परिचय देते हुए, समस्याओं के निदान के लिए पहल की गई होती तो शायद 67 वर्षों के विश्वविद्यालय के इतिहास में जो घटना कभी नहीं घटित हुई उस तरह के अप्रिय घटना की आवृत्ति नहीं हुई होती ।विश्वविद्यालय की घटना शर्मसार करने वाली है, लेकिन उससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि आखिर विश्वविद्यालय में सुलग रही इस आग पर क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों ने रहस्यमई चुप्पी क्यों साध रखी है ।शोध छात्रों के साथ जिस तरह की नाइंसाफी की गई है वह कहीं से भी प्रशंसनीय नहीं है ।पहले 6 माह का शुल्क और पंजीकरण शुल्क जहां ₹2445 था अब उसे बढ़ाकर 8700 कर दिया गया है, शोध छात्रों का मासिक शुल्क ₹258 से बढ़ाकर ₹1065 कर दिया गया है शोध ग्रंथ जमा करने का शुल्क ₹3200 से बढ़ाकर 10500 कर दिया गया है, जबकि पार्ट टाइम पीएचडी शुल्क एक ₹30000 और 8 सेमेस्टर ₹248000 कर दिया गया है ऐसे में सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि गरीब विद्यार्थी कहां से इस विद्यालय में शिक्षा प्राप्त कर पाएंगे ।इतना ही नहीं एमबीए,बीबीए, बी ए, एलएलबी स्टूडेंट की फीस में भी अप्रत्याशित वृद्धि कर दी गई है ₹14000 से बढ़ाकर 20000 ₹18000 से बढ़ाकर 50 हजार और ₹68000 से बढ़ाकर ₹100000 वार्षिक शुल्क कर दिया गया है ।आय बढ़ाने के नाम पर राजकीय विश्वविद्यालय को भी स्ववित्तपोषित शिक्षण संस्थान बना देना कहीं से भी न्याय संगत प्रतीत नहीं हो रहा है ।यदि समय रहते इस क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों ने पूर्वांचल के इस सबसे महत्वपूर्ण उच्च शिक्षण संस्थान के साथ अपने को जोड़ते हुए इसकी दशा सुधारने की दिशा में ठोस पहल नहीं किया तो आने वाली पीढ़ियां उन्हें माफ नहीं करेगी।
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