November 21, 2024

राष्ट्र की परम्परा

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विश्व गुरु भारत: आत्मावलोकन एवं आत्मसुधार

•कर्नल आदि शंकर मिश्र ‘आदित्य’

प्राचीन काल में हमारे देश भारतवर्ष के ऋषि- मुनि व संत महात्मा वनों में पर्वतों में जाकर रहते थे और तपस्या के बल पर अपनी आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त करते थे। अपने तपोवल के द्वारा वह अपने दुर्गुण व सभी विकारों पर विजय प्राप्त करते थे। ईश्वर की निरंतर साधना से संसार में उन्हें विशिष्ट स्थान प्राप्त होता था।

जैसा कि मैंने पहले कहा है कि हमारा देश ऋषियों मुनियों व संत महात्माओं का देश है, जिन्होंने अपने तप त्याग व ज्ञान से न केवल आध्यात्मिक शक्ति की ज्योति जलाई अपितु अपने श्रेष्ठ मर्यादित शील, आचरण, अहिंसा, सत्य, परोपकार, त्याग, ईश्वर भक्ति आदि के द्वारा समस्त मानव जाति के समक्ष जीवन जीने का एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया।
इन्हीं के बताए मार्ग पर चलकर, उसका आचरण करके भारत किसी समय ज्ञान विज्ञान, भक्ति और समृद्धि के चरम शिखर तक पहुंचा था। इस देश में इतने ऋषि मुनि और संत महात्मा हुए हैं कि उनका नाम गिनाना संभव नहीं है। कौन कितना बड़ा और श्रेष्ठ था, इसका मूल्यांकन करना भी संभव नहीं है।
सहस्रों ऐसे उदाहरण हैं हमारी प्राचीन संस्कृति में जहाँ तपबल से ही ऋषियों ने भगवान को प्रसन्न किया और वरदान प्राप्त किये।

देवर्षि नारद, वशिष्ठ, विश्वामित्र, पुलस्ति आदि, वेदव्यास, द्रोणाचार्य, संदीपन, वाल्मीकि, पतंजलि से लेकर आधुनिक युग में आदि शंकराचार्य, रामभद्राचार्य, तुलसी दास, सूरदास, कबीर दास, संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर, महावीर जैन, महात्मा बुद्ध, गुरु नानक जैसे तमाम महापुरुष इस युग में भी हो चुके हैं जिन्हें तपस्या व निरंतर साधना से ईश्वरीय शक्ति प्राप्त हो सकी।

इस संबंध में उदाहरण स्वरूप यहाँ एक छोटी सी कहानी प्रस्तुत कर रहा हूँ। जो इस प्रकार है:-

एक बार एक पर्वतारोही व्यक्ति एक दुर्गम पहाड़ पर चढ़ गया और वहाँ पर उस एकाकी पर्वत पर उसे एक सिद्ध पुरुष दिखाई पड़ा । वह व्यक्ति उसे देख कर बहुत ही आश्चर्य चकित हुआ और उसने अपनी जिज्ञासा उस दिव्य पुरुष से व्यक्त की कि “आप इस निर्जन पर्वत पर क्या कर रहे हैं”।

उस दिव्य पुरुष का उत्तर दिया कि मुझे यहाँ अत्यधिक काम करने हैं इसलिये मैं यहाँ आया हूँ।
इस पर वह पर्वतारोही व्यक्ति बोला “आपको किस से और किस प्रकार का काम है, क्योंकि मुझे तो यहाँ आपके आस-पास कोई दिखाई नहीं दे रहा है।”

उस दिव्य पुरुष का उत्तर था कि मुझे दो बाज़ों को और दो चीलों को प्रशिक्षण देना है, दो खरगोशों को आश्वासन देना है, एक गधे से काम लेना है, एक सर्प को अनुशासित करना है और एक सिंह को वश में करना है।”

पर्वतारोही व्यक्ति आश्चर्य चकित होकर बोला “पर वे सब पशु पक्षी हैं कहाँ, मुझे तो इनमें से कोई नहीं दिख रहा।”

उस दिव्य पुरुष ने समझाया कि ये सब उसके ही अंदर विद्यमान हैं।

दो बाज़ जो प्रत्येक उस चीज पर गौर करते हैं जो भी मुझे मिलीं हैं, अच्छी या बुरी। मुझे उन पर काम करना होगा, ताकि वे सिर्फ अच्छा ही देखें और ये हैं मेरी आँखें।

दो चील जो अपने पंजों से सिर्फ चोट और क्षति पहुंचाते हैं, उन्हें प्रशिक्षित करना होगा, चोट न पहुंचाने के लिए और वे हैं मेरे हाँथ।

खरगोश यहाँ वहाँ भटकते फिरते हैं पर कठिन परिस्थितियों का सामना नहीं करना चाहते। मुझे उनको सिखाना होगा पीड़ा सहने पर या ठोकर खाने पर भी शान्त रहना और वे हैं मेरे पैर।

गधा जो हमेशा थका रहता है, अति जिद्दी भी है, मैं जब भी चलता हूँ, तो वह यह बोझ उठाना नहीं चाहता, इसे आलस्य प्रमाद से बाहर निकालना है और यह है मेरा शरीर।

परंतु सबसे कठिन काम है साँप को अनुशासित करना। वह जबकि 32 सलाखों वाले एक पिंजरे में बन्द है, फिर भी यह निकट आने वालों को हमेशा डसने, काटने और उन पर अपना ज़हर उड़ेलने को आतुर रहता है, मुझे इसे भी अनुशासित करना है और यह है मेरी जीभ।

मेरा पास एक शेर भी है और यह तो निरर्थक ही अहंकार करता है। वह सोचता है कि वह तो एक राजा है। मुझे उसको वश में करना है और वह है मेरा मन-मस्तिष्क, अर्थात् मेरा “मैं और मेरा अहम्”।

यहाँ यह जानना आवश्यक है कि इसी तरह से अपनी लिप्सा, जो जरूरत से ज्यादा बढ़ी रहती है, अपनी भावनायें, जो जरूरत से ज्यादा होती हैं, उन पर नियंत्रण करके, उनको कम करके अपने आपको, अपने परिवार को ख़ासतौर से बच्चों को भारतीय सभ्यता व संस्कृति के अंतर्गत रह कर प्राचीन सांस्कृतिक, वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा का ज्ञान प्राप्त करना और देना आवश्यक है। साथ ही अपनी लिप्सा को नियंत्रित कर कम करके अपने “अहम और मैं” पर नियंत्रण करना आवश्यक है। अपने स्वयं के आत्मावलोकन व आत्म मंथन के आधार पर अपने परिवार एवं अपने बच्चों में संस्कार देना अत्यंत आवश्यक है। बच्चों के सोलह संस्कार समय पर किए जायें, जिनका आधार पूर्णतया वैज्ञानिक है । उनकी शिक्षा दीक्षा, उनका यज्ञोपवीत, उनकी शादी विवाह आदि उचित समय पर करें। ताकि समाज को व देश को सुसंस्कृत व सभ्यता के शीर्ष पर ले जाया जा सके । इस कहानी का यही तात्पर्य है कि हमें अपनी प्राचीन सांस्कृतिक व वैज्ञानिक धरोहरों को बचाने के लिये प्राचीन ऋषियों, मुनियों व मनीषियों की आध्यात्मिकता व तप-त्याग और प्रेम की विश्व बंधुत्व भावना को संजोये रखकर संसार में पुन: विश्व गुरु का स्थान अर्जित करना है।

•कर्नल आदि शंकर मिश्र ‘आदित्य’