सोमनाथ मिश्र की रिपोर्ट
आज शिक्षा का लक्ष्य बच्चों को समझदार, संवेदनशील और सक्षम बनाना होना चाहिए, लेकिन मौजूदा परीक्षा व्यवस्था ने इस उद्देश्य को कहीं न कहीं धुंधला कर दिया है। बढ़ती प्रतिस्पर्धा, उच्च अंक लाने का दबाव और हर विषय में ‘टॉप’ करने की होड़ बच्चों के मन पर अदृश्य बोझ बनकर लटक रही है। परिणामस्वरूप, बच्चा पढ़ाई से अधिक डर, तनाव और चिंता से जूझने लगता है।
स्कूल—कोचिंग—होमवर्क की तीनतरफ़ा दौड़ ने विद्यार्थियों के रोज़मर्रा के जीवन को मशीनों की तरह कर दिया है। सुबह की नींद त्याग कर क्लास, दिनभर पढ़ाई और रात में असाइनमेंट… इस दौड़ में उनका बचपन पीछे छूटता जा रहा है। खेल-कूद, रचनात्मक गतिविधियाँ और परिवार के साथ बिताया समय अब पिछली सीट पर बैठ गए हैं।
सबसे बड़ा सवाल यह है—क्या हम बच्चों को ‘शिक्षित’ बना रहे हैं या सिर्फ़ ‘प्रतियोगी’?
बढ़ती रिपोर्ट बताते हैं कि परीक्षा तनाव के कारण बच्चों में चिड़चिड़ापन, आत्मविश्वास में कमी, सामाजिक दूरी और कई बार अवसाद जैसे लक्षण भी देखे जा रहे हैं। यह सिर्फ़ एक शैक्षणिक समस्या नहीं, बल्कि एक गंभीर मानसिक स्वास्थ्य संकट है, जिसे समय रहते समझना जरूरी है।
माता-पिता की उम्मीदें, जो कभी बच्चों के समर्थन का आधार बनती थीं, अब कई बार दबाव का कारण बन चुकी हैं। हर बच्चा अलग है, हर बच्चे की क्षमता अलग है—लेकिन यह सच्चाई अक्सर अंकतालिका के नीचे दब जाती है। बच्चों को अपना सर्वश्रेष्ठ देने के लिए प्रेरित करना ज़रूरी है, लेकिन “टॉप करना ही ज़िंदगी का लक्ष्य है” जैसी सोच उनके मानसिक संतुलन को बिगाड़ देती है।
दूसरी ओर, शिक्षा प्रणाली भी बदलाव की मांग कर रही है। परीक्षाएँ ज्ञान का मूल्यांकन करें, न कि बच्चों की योग्यता को सीमित करें। निरंतर आकलन, प्रैक्टिकल लर्निंग, स्किल-बेस्ड एजुकेशन और मानसिक स्वास्थ्य सपोर्ट सिस्टम अब समय की जरूरत है। कई देशों में यह मॉडल सफल भी रहा है और भारत के स्कूल भी धीरे-धीरे इस दिशा में कदम बढ़ा रहे हैं।
सच्चाई यही है—अंक भविष्य तय नहीं करते, लेकिन स्वस्थ मन पूरा भविष्य बना सकता है।
इसलिए अब वक्त है कि स्कूल, माता-पिता और समाज मिलकर बच्चों के लिए तनाव-मुक्त, संवेदनशील और समर्थ शिक्षा माहौल तैयार करें, जहाँ सीखना बोझ नहीं बल्कि खुशी बने।
