बरबाद गुलिस्ताँ करने को
बस एक ही उल्लू काफ़ी है,
हर साख पे उल्लू बैठे हैं,
अंजामें गुलिस्ताँ क्या होगा?
बागवाँ बर्बाद करने के लिये
केवल एक वानर ही बहुत है,
पूरा बगीचा वानरों से है भरा,
बगीचा यूँ ही नहीं उजड़ रहा है।
यह शहर रहते हैं जहाँ हम,
शदियों से साफ़ सुथरा रहा,
तहज़ीबे शहर लखनऊ हमारा,
अब तहजीब को ही तरस रहा।
बस गयी हैं बस्तियाँ चारों तरफ़
फैली हुई हैं जुग्गियाँ, झोपड़ियाँ,
मैली हुई है हर गली, आबो हवा,
चहक़ने पाती नहीं चमन में चिड़ियाँ।
अफ़सर कमायें, अपना घर भरें,
सरकारी जमींनो को नीलाम कर,
करोड़ों अरबों की संपति शहर की,
वसूलें हफ़्ता सबकी नज़रें बचाकर।
हज़ारों हज़ारों बस्तियाँ बन गईं हैं,
दिखती नहीं है बिलकुल किसी को,
अनजान बन नज़रें झुकाकर निकल
जाते जनाबेआली बेचकर शहर को।
लखनऊ हमारा स्मार्ट कैसे बनेगा,
सड़कों में गड्ढे, बजबजाती नालियाँ,
ठेकेदारी पृथा जमकर चल रही है,
आदित्य उनकी भर रही हैं झोलियाँ।
- कर्नल आदि शंकर मिश्र ‘आदित्य’
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