दीपावली पर परम्परा और आजीविका की कहानी :-बी पी त्रिपाठी
उतरौला ,बलरामपुर(राष्ट्र की परम्परा)
दीपावली का पर्व आते ही हर घर, मोहल्ला और बाजार रोशनी से जगमगाने लगता है। इस रोशनी के पीछे सबसे महत्वपूर्ण योगदान होता है उन कुम्हार भाइयों का, जो मिट्टी के दीयों से हमारी परंपरा और त्योहार की सुंदरता को बरकरार रखते हैं। पूरे साल मिट्टी के बर्तन बनाने और दीपावली के दीए तैयार करने में कुम्हार भाई अपनी कड़ी मेहनत और हुनर का प्रदर्शन करते हैं, लेकिन उनकी मेहनत का मूल्य उन्हें शायद ही पूरा मिलता है। बदलते समय के साथ बढ़ती लागत, चीनी उत्पादों का बढ़ता प्रभाव, और बदलती उपभोक्ता प्राथमिकताओं ने उनकी आजीविका को काफी प्रभावित किया है।
कुम्हारों की परिस्थितियाँ और संघर्ष
कुम्हारों का जीवन सरल नहीं है। मिट्टी के दीये, बर्तन, गुल्लक, सुराही, कलश आदि बनाने के लिए साल भर ये कुम्हार मेहनत करते हैं। मिट्टी का इंतजाम करना, उसे गूंथना, विभिन्न आकारों में ढालना, सुखाना और फिर भट्टी में पकाना यह पूरा काम अत्यधिक मेहनत मांगता है। यह प्रक्रिया न केवल शारीरिक मेहनत है, बल्कि हर चरण में धैर्य और विशेषज्ञता की भी आवश्यकता होती है। इन सबके बावजूद, आधुनिक तकनीक और सस्ते चीनी उत्पादों के बढ़ते उपयोग से उनकी मेहनत की उचित कीमत नहीं मिल पाती।
दीयों की जगह ले रहे हैं चीनी उत्पाद
पिछले कुछ सालों में, बाजार में चीनी दीयों, रंगीन लाइटों और इलेक्ट्रॉनिक सजावट के सामान की उपलब्धता बढ़ गई है। ये उत्पाद सस्ते होने के कारण ग्राहकों को आकर्षित करते हैं और दीर्घकालिक उपयोग के कारण लोग इन्हें प्राथमिकता देने लगे हैं। जहां पहले लोग दीपावली पर मिट्टी के दीये जलाना शुभ मानते थे, अब उनकी जगह बिजली के दीयों और लाइट्स ने ले ली है। इसका सीधा असर कुम्हारों की आमदनी पर पड़ता है, क्योंकि सस्ते चीनी दीये और अन्य इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद उनकी बिक्री को कम कर देते हैं।
आर्थिक स्थिति और कठिनाइयाँ
कुम्हार समुदाय के लिए दीपावली का समय आमदनी का सबसे महत्वपूर्ण साधन होता है। सालभर का खर्चा चलाने के लिए वे इसी समय पर निर्भर होते हैं, लेकिन चीनी उत्पादों के सस्ते विकल्पों के चलते उनकी बिक्री में गिरावट आई है। कई बार कुम्हार अपनी लागत निकालने में भी असमर्थ होते हैं, और उनकी मेहनत का लाभ बिचौलिए या बड़े विक्रेता उठा लेते हैं। मिट्टी, ईंधन, और अन्य सामग्रियों की बढ़ती कीमत ने भी उनकी स्थिति को और जटिल बना दिया है।
समाज और प्रशासन का सहयोग
कुम्हारों की कठिनाइयों को देखते हुए समाज और प्रशासन का समर्थन जरूरी है। स्थानीय बाजारों और मेले में मिट्टी के दीयों की विशेष बिक्री को प्रोत्साहित किया जा सकता है। साथ ही, सरकार द्वारा इन कारीगरों को आवश्यक सुविधाएं, सब्सिडी और ट्रेनिंग कार्यक्रम दिए जाने चाहिए ताकि वे अपने उत्पादों को और भी आकर्षक बना सकें। कुछ सरकारी योजनाएं हैं, जो इन्हें लाभान्वित कर सकती हैं, लेकिन जागरूकता की कमी के कारण कई कुम्हार इन योजनाओं का लाभ नहीं उठा पाते।
हम क्या कर सकते हैं?
हम सभी अपनी परंपराओं का संरक्षण करते हुए कुम्हारों का समर्थन कर सकते हैं। इस दीपावली पर, यदि हम चीनी उत्पादों की जगह मिट्टी के दीये जलाने का संकल्प लें, तो न केवल हमारे घरों में दीपावली की असली रौनक आएगी, बल्कि कुम्हारों को भी उनकी मेहनत का सही मूल्य मिलेगा। उनकी आर्थिक स्थिति सुधरेगी, और इस परंपरा को नया जीवन मिलेगा।
कुम्हारों की मेहनत, संघर्ष और कला का सम्मान करना ही दीपावली के असली अर्थ को समझना है। उनकी बनाई वस्तुएं न केवल हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं, बल्कि त्योहार की पवित्रता को भी संजोए रखती हैं।
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