December 3, 2024

राष्ट्र की परम्परा

हिन्दी दैनिक-मुद्द्दे जनहित के

जो समाज अपनी कविता, कला, भाषा को नहीं बचा सकता, वह गुलामी से नहीं बच सकता: प्रो. चित्तरंजन मिश्र

आलोचना का काम जड़ता से टकराना है: प्रो. चित्तरंजन मिश्र1

मौलिक मेधा अपनी भाषा में पनपती है: प्रो. नन्दकिशोर पाण्डेय

गोरखपुर (राष्ट्र की परम्परा)। दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय में चल रहे तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के दूसरे दिन प्रो. चित्तरंजन मिश्र ने सम्बोधित करते हुए कहा कि आलोचना सहृदय संवाद है और यह सह्रदय संवाद करते हुए रचना की अर्थ मीमांसा में उतरना पड़ता है। अर्थ की मीमांसा में उतरे बिना यदि रचना पर आप कुछ अपने मन का थोपते हैं तो आप रचना के साथ न्याय नहीं कर सकते हैं। समकालीन आलोचना समसामयिकता के गहरे दबाव में है। जिसकी वजह से वह अपनी परंपरा के प्रति अपरिचय का भाव पैदा करती है।
उन्होंने कहा कि कविता को घटना की तरह नहीं पढ़ना चाहिए। जो समाज अपनी कविता, कला, भाषा को नहीं बचा सकता वह गुलामी से भी नहीं बच सकता. आलोचना का काम जड़ता से टकराना है। एकरूपता को तोड़ना है। सारी दुनिया परस्पर विनिमय से चलती है। विचार विश्व भर के होते हैं. बुद्ध इस धरती के थे लेकिन उनका विचार दुनिया में फैला।
प्रो. नन्दकिशोर पाण्डेय ने कहा कि मौलिक मेधा अपनी भाषा में पनपती है। जब हम भारतीय भाषाओं में पढ़ते थे तब कई वैज्ञानिक उपलब्धियां हासिल किए। परंतु, जबसे देश में फारसी और अंग्रेजी का प्रचलन बढा तब से हमें कोई वैज्ञानिक या तकनीकी उपलब्धि हासिल नहीं हुई। उन्होंने आगे कहा कि भाषा को बचाने के लिए उसका व्याकरण, शब्दकोश और उसके लोक साहित्य का संग्रह होना चाहिए।
प्रो. पांडेय ने अंग्रेजी का जिक्र करते हुए कहा कि जिन राज्यों में, विशेष तौर पर पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में, राज-काज की भाषा अंग्रेजी है, वहां की स्थानीय भाषा समाप्त हो रही है। सत्ता और जनता की भाषा एक होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि आज हिन्दी विश्व की जरूरत है. इसे नकारने की सामर्थ्य किसी में नहीं है। यहां तक कि संयुक्त राज्य संघ में भी हिन्दी को सम्मान से सुना जाता है।
प्रो. दीपक प्रकाश त्यागी ने अपने संबोधन में कहा कि भाषाओं का सवाल न्याय और अन्य का सवाल है हम कैसा समाज बनाना चाहते हैं यह सवाल भाषा से जुड़ा हुआ है। उन्होंने कहा कि भारतीय ज्ञान परंपरा तभी बचेगी जब भारतीय भाषाएं बचेंगी। वंचित व हाशिए की भाषाओं को जब महत्व मिलेगा।
उन्होंने कहा कि भाषा का सवाल सदैव हास्य पर रखा गया। उन्होंने यह भी कहा कि भारतीय भाषा का क्षरण, असल में भारतीय संस्कृति और भारतीयता के क्षरण से जुड़ा हुआ सवाल है।
नासिक के प्रो.विजय प्रसाद अवस्थी ने कहा कि हिंदी भाषा के विकास में आम आदमी का सबसे बड़ा योगदान है आम बोलचाल की हिंदी को कोई खतरा नहीं है। उन्होंने कहा कि हिंदी का भविष्य टेक्नोलॉजी एवं भारत की सांस्कृतिक भावात्मक एकता से जुड़ा हुआ है।
इग्नू के प्रोफेसर नरेंद्र मिश्रा ने कहा हिंदी शिक्षा जगत में सिकुड़ रही है लेकिन बाजार में बढ़ रही है इसका उदाहरण फिल्म और मीडिया में देखा जा सकता है। उन्होंने कहा कि भारत में 25 में से 21 हाईकोर्ट की भाषा भारतीय भाषा नहीं है.अफसर शाही नहीं चाहती कि हिंदी ऊपर उठे.उन्होंने कहा कि शिक्षा और सरकारी कामकाज की भाषा एक होनी चाहिए। जब हिंदी में सॉफ्टवेयर होगा, तभी हिंदी वैश्विक भाषा बन सकेगी।
प्रो.रामदरश राय ने आचार्य रामचंद्र तिवारी का स्मरण करते हुए कहा वह ऐसे आलोचक थे। जिनकी आलोचनाएं मौलिक थीं। प्रों राय ने हिन्दी की दशा पर चिंता जताते हुए कहा कि इसका वर्तमान अच्छा नहीं है।
प्रो. राजेश मल्ल ने अपने संबोधन में कहा कि हिंदी आलोचना का आरंभ दो प्रश्न तथा दो दिशाओं में विभाजित है। एक पुरानी रीतिवादी कलावादी सामंती दृष्टि से संचालित है। तो दूसरी आधुनिक जनवादी और सामंतवादी सौंदर्याभिरुचि के खिलाफ या सामंतवाद विरोधी चेतना से संचालित।
उन्होंने कहा कि आचार्य रामचंद्र तिवारी हम लोगों को आचार्य रामचंद्र शुक्ल के निबंध और कबीर पढ़ते थे आचार्य शुक्ल उनके प्रिय लेखक थे तो कबीर उनके प्रिय कवि लेकिन उनका मानो जगत तथा आलोचना दृष्टि के पीछे तुलसीदास की समन्वयवादी इसलिए वे दो प्रश्न दो दिशाओं दो धाराओं के बीच में गहरा संतुलन और समन्वय करते चलते थे।
डॉ.दमयंती तिवारी ने कहा कि त्याग में भी आनंन्द है । स्व से पर को जोड़ने का भाव है। अनन्यता बोध से वसुधैव कुटुम्बकम की भावना निःसृत है।
त्रिपुरा की प्रो. मिलन रानी जमातिया ने कहा कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल के निबंधों से हम सभी परिचित हैं, जिनमें भारतीय दृष्टिकोण व्यक्त हुआ है। हमारे जीवन मूल्यों को ध्यान में रखकर रामचंद्र तिवारी ने रामचंद्र शुक्ल के सिद्धांतों का विश्लेषण किया ।
प्रो.गौरव तिवारी ने अपने संबोधन में कहा कि हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष माने जाने वाले आलोचक जितना कलात्मक कसौटियों के प्रति सजग हैं उतनी ही वे साहित्य में सभ्यता समीक्षा के प्रति संवेदनशीलता भी रखते हैं। इन दोनों को साध लेने के कारण ही आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा और मुक्तिबोध हिंदी के शिखर आलोचक हैं। आलोचकों की दूसरी कोटि वह है जो शास्त्रीय कसौटियों से साहित्य की आलोचना को अपनी प्राथमिकता में रखते हैं। तीसरी कोटि वह है जिसमें साहित्य के मूल्यांकन की कलात्मक कोटियां अनावश्यक मानी जाती हैं और आलोचना शुद्ध रूप से सभ्यता समीक्षा का रूप धारण कर चुकी है। समकालीन हिंदी आलोचना सभ्यता समीक्षा का रूप धारण कर चुकी है।
डॉ. श्रीराम परिहार ने कहा कि हमारी ज्ञान परंपरा में विज्ञान और ज्ञान अलग नहीं है। बिना प्रकृति के मनुष्य का श्रृंगार नहीं हो सकता। कवियों को भी हमारे धरती की संस्कति को समझना होगा । संस्कृति की भूमि पर ही रामचंद्र तिवारी की कलम चली थी. निबंध ने अपनी जमीन कभी नहीं छोड़ी।
प्रो. मंजु त्रिपाठी ने अपने संबोधन में कहा कि राम के घटक तत्वों का विश्लेषण किया जाए तो इसमें राम कथा का लोक मानस रचित आदिरूप, ऐतिहासिक यथार्थ का पोषण करने वाली दो जातियों की संघर्ष गाथा का रूप तथा नैसर्गिक ऋत से आरंभ होकर मानव समाज के विकास के साथ अनेक धार्मिक, सांस्कृतिक व नैतिक मूल्यों से संश्लेषित धर्म गाथा का रूप एकसाथ सुरक्षित है.यही नहीं वाल्मीकि से लेकर तुलसीदास तक अनेक महाकवियों की रचनात्मक प्रतिभा का संस्पर्श पाकर यह कथा भाव और रस की अनेक भूमियों तथा सौंदर्य चेतना के अनेक स्तरों से समृद्ध होकर पूरे विश्व के लिए आकर्षण तथा प्रेरणा का विषय बन गई है। अतः राम कथा की गूढता स्वभावतः सिद्ध होती है।
हैदराबाद के प्रो. आर.एस.सर्राजू ने कहा कि भाषा का प्रयोग वक्ता और श्रोता के बीच होता है, जिसके बीच एक समाज होता है। आलोचना को हम गद्य की एक विधा के रूप में देखते हैं, जबकि भाषाई चेतना के साथ भी इसका संबंध है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अंग्रेजी और हिंदी की परंपरा को मिलकर अपनी बात कही।
केंद्रीय हिंदी निदेशालय एवं दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में ‘हिंदी भाषा और साहित्य: आलोचना का मूल्य और डॉ. रामचंद्र तिवारी’ विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी का दूसरा दिन तकनीकी सत्रों का था.इसके पहले सत्र का विषय ‘हिंदी भाषा : वर्तमान एवं भविष्य’ तथा दूसरे सत्र का विषय ‘हिंदी निबंध : सांस्कृतिक मूल्य’ तथा तीसरे संयुक्त सत्र का विषय ‘हिंदी आलोचना का स्वरूप’ था. इन सभी तकनीकी सत्रों का सफल संयोजन हुआ।
शनिवार के विभिन्न सत्रों का संचालन डॉ. अखिल मिश्र, डॉ. नरेंद्र कुमार, डॉ. अभिषेक शुक्ल व डॉ.विजयानंद मिश्र ने किया। संगोष्ठी के संयोजक प्रो.विमलेश मिश्र और हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो. कमलेश कुमार गुप्त ने इस दौरान संपूर्ण व्यवस्था को बनाए रखने में अपनी भूमिका का विधिवत निर्वाह किया।

प्रो.टीवी कट्टीमनी की पुस्तक का हुआ विमोचन
प्रो. टी.वी. कट्टीमनी की पुस्तक ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति: गेमचेंजर’ का आज संगोष्ठी के दौरान विमोचन हुआ। इस पुस्तक का विमोचन प्रो. सुरेंद्र दुबे की केंद्रीय उपस्थिति में संपन्न हुआ। प्रोफेसर टीवी कट्टीमनी जनजातिय केंद्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद के कुलपति हैं। इसके पहले वह इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय के कुलपति रह चुके हैं।

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