डॉ. सतीश पाण्डेय
महराजगंज(राष्ट्र की परम्परा)। समय की गति कभी इतनी तीव्र नहीं रही जितनी आज है। आधुनिकता की तेज चाल ने जीवन को सुविधाजनक, तेज और तकनीक-आधारित बना दिया है, लेकिन इसी रफ्तार में परंपरा की साँसें थकती हुई दिखाई देने लगी हैं। इन दोनों के बीच आज का समाज एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां दिशा स्पष्ट नहीं और रास्ता उलझनों से भरा है।
परंपरा किसी समाज का बोझ नहीं, बल्कि उसकी जड़ होती है। यही जड़ संस्कार, नैतिकता और सहअस्तित्व का आधार बनाती है। लेकिन बदलते दौर में परंपराओं को अक्सर पिछड़ेपन की संज्ञा दी जाने लगी है। नई पीढ़ी स्वतंत्र सोच और आधुनिक जीवन-शैली को प्राथमिकता दे रही है, वहीं पुरानी पीढ़ी को आशंका है कि इस तेज बदलाव में संस्कृति और मूल्य कहीं खो न जाएं।
आधुनिकता ने प्रगति के नए द्वार खोले हैं, पर उसकी तेज चाल ने समाज को ठहर कर सोचने का समय नहीं दिया। तकनीक ने संवाद को आसान बनाया, लेकिन रिश्तों की गर्माहट कम कर दी। परिवारों में बातचीत की जगह स्क्रीन ने ले ली है। परिणामस्वरूप पीढ़ियों के बीच दूरी बढ़ रही है और आपसी समझ कमजोर होती जा रही है। यह टकराव केवल परिवार तक सीमित नहीं है। शिक्षा, सामाजिक व्यवहार, विवाह व्यवस्था और जीवन-दृष्टि—हर क्षेत्र में यह द्वंद्व साफ नजर आता है। जब परंपरा बदलने से इंकार करती है और आधुनिकता सीमाएं मानने से, तब समाज बीच में उलझ जाता है। न पुराना ढंग पूरी तरह छूट पाता है, न नया ढंग पूरी तरह अपनाया जा सकता है।
सबसे चिंता की बात यह है कि इस उलझन का असर नैतिक मूल्यों पर पड़ रहा है। संयम, धैर्य और जिम्मेदारी जैसे मूल्य कमजोर हो रहे हैं। समाज की दिशा यदि केवल रफ्तार से तय होगी, तो वह संवेदना खो देगी, और यदि केवल परंपरा से बंधी रहेगी, तो वह विकास से वंचित रह जाएगी।
समाधान टकराव में नहीं, संतुलन में है। परंपरा को समय के अनुरूप साँस लेने दी जाए और आधुनिकता को विवेक की लगाम पहनाई जाए। जब दोनों साथ चलेंगे, तभी समाज इस उलझन से बाहर निकलेगा और प्रगति के साथ अपनी पहचान भी बचा पाएगा।
