कैलाश सिंह
महराजगंज (राष्ट्र की परम्परा)। मानव सभ्यता के इतिहास में जब भी समाज ने संगठित रूप लेना शुरू किया, तब नियम, आचार और नैतिकता की आवश्यकता महसूस हुई। इसी आवश्यकता से संविधान का जन्म हुआ, जबकि नैतिकता और जीवन-मूल्यों की जड़ें परमात्मा की अवधारणा में निहित मानी जाती हैं। संविधान और परमात्मा—दोनों मानव जीवन के मार्गदर्शक हैं, किंतु दोनों की प्रकृति, भूमिका और प्रभाव-क्षेत्र भिन्न हैं। जहां संविधान मानव की बुद्धि, अनुभव और सामाजिक जरूरतों की रचना है, वहीं परमात्मा उस सृष्टि का आधार है, जिसे मानव न तो बना सकता है और न ही पूर्ण रूप से परिभाषित कर सकता है। संविधान किसी भी राष्ट्र की शासन-व्यवस्था की रीढ़ होता है। यह सत्ता के स्वरूप और उसकी सीमाओं को निर्धारित करता है तथा नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों के बीच संतुलन स्थापित करता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में संविधान जनता को समानता, स्वतंत्रता और न्याय का आश्वासन देता है। समय के साथ समाज बदलता है, परिस्थितियां बदलती हैं और नई चुनौतियां सामने आती हैं। ऐसे में संविधान में संशोधन की व्यवस्था उसे जीवंत और प्रासंगिक बनाए रखती है। यही इसकी सबसे बड़ी शक्ति है, लेकिन यह भी सत्य है कि संविधान मानव निर्मित है और मानवीय समझ की सीमाओं के भीतर ही कार्य करता है। इसके विपरीत परमात्मा की अवधारणा किसी लिखित दस्तावेज या विधायी प्रक्रिया से उत्पन्न नहीं हुई। वह आस्था, अनुभूति और चेतना का विषय है। सृष्टि की उत्पत्ति, जीवन की निरंतरता, प्रकृति का संतुलन और नैतिकता के मूल सिद्धांत परमात्मा से जुड़े माने जाते हैं। जहां संविधान समाज के बाहरी ढांचे को नियंत्रित करता है, वहीं परमात्मा मनुष्य की अंतरात्मा को दिशा देता है। कानून दंड और पुरस्कार के माध्यम से व्यवहार को नियंत्रित कर सकता है, लेकिन परमात्मा का विचार व्यक्ति के भीतर विवेक, आत्म-संयम और उत्तरदायित्व की भावना जगाता है। यह कहना गलत होगा कि संविधान और परमात्मा परस्पर विरोधी हैं। वास्तव में दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। संविधान भले ही धर्मनिरपेक्ष हो, पर उसके मूल में निहित न्याय, समानता, स्वतंत्रता, करुणा और मानव गरिमा जैसे मूल्य किसी न किसी रूप में आध्यात्मिक चेतना से ही प्रेरित हैं। वहीं परमात्मा की अवधारणा मनुष्य को सत्यनिष्ठ, कर्तव्यनिष्ठ और सहिष्णु बनने की प्रेरणा देती है, जिससे संविधान द्वारा स्थापित व्यवस्था और अधिक मजबूत होती है।आधुनिक समय में संकट तब पैदा होता है, जब इस संतुलन को बिगाड़ दिया जाता है। कभी संविधान को ही अंतिम और सर्वोच्च सत्य मानकर नैतिकता की उपेक्षा की जाती है, तो कभी परमात्मा या धर्म के नाम पर संविधान और कानून को चुनौती दी जाती है। दोनों ही स्थितियां समाज के लिए घातक हैं। एक स्वस्थ, समरस और प्रगतिशील समाज वही है, जहां संविधान शासन और प्रशासन का मार्गदर्शक बने, और परमात्मा मानव की नैतिक चेतना का आधार। अंततः संविधान हमें यह सिखाता है कि समाज कैसे चले, जबकि परमात्मा यह बोध कराता है कि हमें कैसा इंसान बनना चाहिए। जब व्यवस्था और विवेक, कानून और करुणा, अधिकार और कर्तव्य—इन सबके बीच संतुलन स्थापित होता है, तभी समाज स्थिर, न्यायपूर्ण और मानवीय बनता है। यही संतुलन राष्ट्र की वास्तविक शक्ति और सभ्यता की पहचान है।
