June 16, 2025

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सुप्रीम कोर्ट द्वारा नई शिक्षा नीति खारिज संघवाद को मिला बल

अब वास्तविक विकल्प पर विचार का समय -रामदास प्रीनी शिवनंदन

मई 2025 में तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 को लागू करने की मांग करने वाली याचिका को सुप्रीम कोर्ट द्वारा खारिज किए जाने का स्वागत किया जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहा है कि वह राज्यों को नई शिक्षा नीति लागू करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता और केवल तभी हस्तक्षेप कर सकता है, जब नीति का क्रियान्वयन या गैर-क्रियान्वयन नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता हो। लेकिन इस औपचारिक कानूनी प्रतिबंध से परे, ऊपर से निर्धारित 7कर नीचे इस नीति को थोपने और संघीय लोकतंत्र की भावना के बीच राजनीतिक लड़ाई कहीं अधिक गहरी है।
यह फैसला ऐसे समय में आया है, जब भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने राज्य शिक्षा अनुदान और विश्वविद्यालय अनुदान को नई शिक्षा नीति के अनुपालन से जोड़कर फंडिंग को हथियार बना लिया है, जिससे असहमति जताने वाले निकायों को प्रभावी ढंग से मजबूर किया जा रहा है। इसने राज्यपालों को निर्वाचित विश्वविद्यालय निकायों को दरकिनार करने और सार्थक राज्य या परिसर परामर्श के बिना केंद्रीकृत नियामकों को स्थापित करने का अधिकार देकर संस्थागत स्वायत्तता को खत्म कर दिया है। बाध्यकारी जनादेश, कॉर्पोरेट-हिंदुत्व संयोजन के लिए डिज़ाइन किये गये मानकीकृत पाठ्यक्रम, बुनियादी ढांचे की आवश्यकताओं और लक्ष्य-आधारित प्रदर्शन पर निजी भागीदारी के जरिए संघ विविध क्षेत्रीय और संस्थागत परिदृश्यों पर एक समान नीति का खाका थोप रहा है। समवर्ती सूची में होने के बावजूद, शिक्षा को तेजी से केंद्रीकृत आवेगों के अधीन लाया जा रहा है। नई शिक्षा नीति इस प्रवृत्ति की शुरुआत नहीं है ; यह इसकी सबसे स्पष्ट अभिव्यक्ति है — जिसे एक चमकदार और एक प्रगतिशील दस्तावेज के रूप में पेश किया गया है, लेकिन जो गहरे अन्तर्विरोधों और बाध्यकारी संभावनाओं को छुपाता है।
शिक्षा को सार्वभौमिक और आधुनिक बनाने के रोडमैप के रूप में तैयार की गई नई शिक्षा नीति, 2020 “बहुविषयकता” और “21वीं सदी के कौशल” पर जोर देती है। लेकिन ये सब शब्द शिक्षा क्षेत्र में केंद्रीकरण, व्यावसायीकरण और सांप्रदायिकता की ओर वास्तविक बदलाव को छुपाते हैं। अपने वैचारिक मूल में, नई शिक्षा नीति शिक्षा के एक ऐसे दृष्टिकोण को बढ़ावा देती है, जो मुक्ति के बारे में कम और नियंत्रण के बारे में अधिक है। नई शिक्षा नीति की मसौदा समिति के तथाकथित ‘विशेषज्ञों’ ने गर्व से उल्लेख किया कि इस नीति का उद्देश्य बाजार की जरूरतों के अनुरूप कार्यबल तैयार करना है। “रोजगार योग्यता”, “अनुशासन” और “लचीलापन” जैसे शब्दों को प्रगतिशील शब्दावली के रूप में पेश किया जाता है, लेकिन वास्तव में वे एक ऐसे दृष्टिकोण को लागू करने के लिए कठघोड़े के रूप में काम करते हैं, जो छात्रों को कॉर्पोरेट बाजारों के लिए आज्ञाकारी उत्पाद के रूप में तैयार करता है।
नई शिक्षा नीति स्पष्ट रूप से बहुसंख्यक सांस्कृतिक संहिता से जुड़ी हैं, तीन-भाषा सूत्र के माध्यम से हिंदी के लिए इसका जोर है और बाजार तर्क के साथ इसका संरेखण किया गया है। अतः यह विचार कि इसे सभी राज्यों द्वारा “शब्दशः और भावना” में अपनाया जाना चाहिए, भारत के बहुलतावादी संवैधानिक डिजाइन की अनदेखी करना है। इस नीति के विरोध को क्षेत्रीय स्वायत्तता, भाषाई विविधता और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए लंबे समय से चले आ रहे जोर के हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए। इस संदर्भ में, भाजपा नेता द्वारा दायर याचिका, जिसमें दावा किया गया था कि राज्य संविधान के अनुच्छेद-32 के तहत नई शिक्षा नीति को लागू करने के लिए संवैधानिक रूप से बाध्य हैं, को सुप्रीम कोर्ट द्वारा खारिज कर दिया गया है। एक कानूनी फैसले से कहीं अधिक, इसे हमारे संविधान के एक प्रमुख संघीय सिद्धांत की न्यायिक पुष्टि के रूप में पढ़ा जा सकता है : कि राज्य, संघ की प्रशासनिक उप-इकाइयाँ नहीं हैं, बल्कि स्वायत्त शक्तियों वाली राजनीतिक इकाइयाँ हैं। न्यायालय के इस फैसले को यदि तमिलनाडु राज्य बनाम राज्यपाल टीएन रवि के पहले के फैसले के साथ पढ़ा जाएं, तो यह रेखांकित होता है कि संघवाद महज एक प्रक्रियात्मक औपचारिकता नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट में दायर जनहित याचिका में तर्क दिया गया था कि नई शिक्षा नीति को लागू करने से इंकार करके तीनों राज्य स्कूली बच्चों को उनकी शिक्षा के अधिकार से वंचित कर रहे हैं। लेकिन जांच-पड़ताल के दौरान यह दावा ध्वस्त हो जाता है। अनुच्छेद-131 के तहत तमिलनाडु की चुनौती – जिसमें केंद्र पर गैर-अनुपालन के दंड के रूप में शिक्षा निधि में 2,291 करोड़ रुपये रोकने का आरोप लगाया गया है, ने केंद्र के वास्तविक खेल को उजागर कर दिया है। जब भी भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार नई शिक्षा नीति या अन्य मामलों को लोकतांत्रिक तरीके से लागू नहीं कर पाती है, तो वे वित्तीय ब्लैकमेल का सहारा लेते हैं।
जबकि विपक्षी शासित राज्य सरकारों, जैसे कांग्रेस के नेतृत्व वाली कर्नाटक और तेलंगाना तथा तृणमूल कांग्रेस के नेतृत्व वाली पश्चिम बंगाल सरकार ने नई शिक्षा नीति के पक्ष में केंद्र की बयानबाजी के जवाब में अपनी खुद की शिक्षा नीतियों का प्रस्ताव रखा है, ये उसी बाजार-संचालित बहिष्कार के तर्क में फंसी हुई हैं, जो नौटंकी से ज्यादा और कुछ नहीं पेश करती हैं। बहरहाल, केरल एक क्रांतिकारी विकल्प प्रस्तुत करता है : जहां उच्च शिक्षा प्रणाली का सार्वजनिक वित्त पोषण होता है, जहाँ राष्ट्रीय औसत से अधिक नामांकन है, लिंग समानता (1.52 समानता सूचकांक के साथ) भारत में सबसे अधिक है और जहां राज्य, लोकतांत्रिक शासन द्वारा संचालित होता है। यहाँ, सीपीआइ(एम) के नेतृत्व वाली वाम-लोकतांत्रिक मोर्चा सरकार ने अपने स्वयं की शिक्षा पारिस्थितिकी तंत्र को मजबूत किया है, विदेशी अध्ययनों के लिए अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए छात्रवृत्ति दी है, उच्च रैंकिंग के राज्य विश्वविद्यालयों का निर्माण किया है, बुनियादी ढाँचे के लिए पर्याप्त वार्षिक निधि आबंटित की है, शैक्षणिक परिषदों में छात्रों का प्रतिनिधित्व अनिवार्य किया है और इन कदमों के क्रियान्वयन के जरिए नई शिक्षा नीति का विरोध किया है, जो इस नई नीति के बहिष्कारवादी, विभाजनकारी मूल्यों पर कोड़ा मारने जैसा है। केरल सार्वजनिक स्कूली शिक्षा के अपने बचाव में आगे खड़ा है। व्यावहारिकता के नाम पर स्कूलों को बंद करने के बजाय हजारों सरकारी स्कूलों को मजबूत किया गया है ; धर्मनिरपेक्ष विषय वस्तु और स्थानीय रूप से प्रासंगिक पाठ्यक्रम लगातार अपडेट किए जाते हैं। नई शिक्षा नीति के निजीकरण के एजेंडे की नकल करने से राज्य के इनकार के कारण सरकारी स्कूलों में नामांकन में वृद्धि हुई है और शैक्षिक निर्णय लेने की प्रकिया में समुदाय की भागीदारी मजबूत हुई है।
नई शिक्षा नीति के खिलाफ लड़ाई कानूनी या राजनीतिक रूप से खत्म नहीं हुई है। प्रगतिशील छात्र आंदोलन, खासकर एसएफआई, भारत में नई शिक्षा नीति के खिलाफ प्रतिरोध आंदोलन को बढ़ा रहा है। नई शिक्षा नीति को खारिज करने वाले कैंपस जनमत संग्रह से लेकर इसके बहिष्कारवादी डिजाइन के खिलाफ देशव्यापी विरोध आंदोलन संगठित करने तक, छात्रों ने इस नीति की अलोकतांत्रिक जड़ों को उजागर किया है और केंद्र सरकार के “कोई विरोध नहीं” के दावे को सीधी चुनौती दी है । इसलिए, सुप्रीम कोर्ट का फैसला संविधान में उल्लेखित संघवाद को कायम रखने के लिए सिर्फ एक तकनीकी कदम नहीं है ; यह विकल्पों को बढ़ाने का भी निमंत्रण है। शिक्षा को लोकतांत्रिक बनाने में केरल की सफलता प्रतिरोध के लिए एक मॉडल पेश करती है। नई शिक्षा नीति और इसके क्लोन इसमें में सुधार की भाषा बोल सकते हैं, लेकिन इसका व्याकरण सत्तावादी और सांप्रदायिक है। अब संघर्ष वास्तविक जन-केंद्रित विकल्प को संघ परिवार के शोर से ऊपर सुनाने का है।

रामदास प्रिंनी शिवनन्दन
लेखक स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) की केंद्रीय कार्यकारिणी समिति के सदस्य