सुदामा प्रसाद पांडेय ‘धूमिल’ : जनपक्षीय चेतना के मुखर कवि

• नवनीत मिश्र

हिन्दी कविता की नई धाराएँ जब बिंबों और प्रतीकों के मोह में उलझ रही थीं, उसी समय सुदामा प्रसाद पांडेय ‘धूमिल’ ने शब्दों को सीधे जमीन पर उतारकर कविता की दिशा ही बदल दी। वाराणसी के खेवली गांव में जन्मे धूमिल के भीतर का कवि अपने आसपास दिख रही असमानताओं, राजनीतिक पाखंड और व्यवस्था की तानाशाही से लगातार टकराता रहा। यही टकराहट उनकी रचनाओं की असली पहचान बन गई।

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धूमिल की कविता किसी साहित्यिक सजावट का मोह नहीं पालती। उनकी पंक्तियाँ सीधे आदमी के भीतर उतरती हैं और व्यवस्था की पोल खोलती हैं। वह कहते हैं कि कविता सुंदरता का खेल नहीं, बल्कि आदमी होने की तमीज है। उनकी कविताएँ बताती हैं कि लोकतंत्र का असली चेहरा सड़क पर खड़े उस आम नागरिक की बेचैनी में दिखाई देता है, जिसकी समस्याओं को राजनीतिक भाषणों और सरकारी फाइलों में लगातार नज़रअंदाज़ किया जाता है।
भोजपुरी और जनभाषा की ताकत को धूमिल ने जिस आत्मविश्वास के साथ अपनी कविताओं में उतारा, वह हिन्दी कविता में कम ही दिखाई देता है। उनकी भाषा में वह खुरदुरापन और सच्चाई है जो ग्रामीण जीवन की मिट्टी से आती है। यही कारण है कि उनकी कविताएँ किसी सिद्धांत की नहीं, जीवन की भाषा बोलती हैं। ‘संसद से सड़क तक’ जैसी रचनाएँ आज भी राजनीति और नौकरशाही के दोहरे चरित्र को बेनकाब करती हैं।
धूमिल की कविताएँ नागरिक और सत्ता के बीच खड़े उन सवालों का दस्तावेज़ हैं जिन्हें समाज अक्सर दबा देता है। वे लोकतंत्र को सिर्फ एक शब्द नहीं, एक जिम्मेदारी मानते हैं। वे पूछते हैं कि लोकतंत्र आखिर किसके लिए हैl नागरिक के लिए या उन संस्थाओं के लिए जो जनता की आवाज़ को ही नियंत्रित कर देती हैं। उनकी कविताएँ लोकतंत्र की यही उलझनें उजागर करती हैं।
उनकी प्रमुख रचनाओं ‘संसद से सड़क तक’, ‘काल के कंधों पर’ और ‘सुदामा पांडेय का प्रजातंत्र’ में जनता के संघर्ष, किसान-मजदूर की व्यथा और भ्रष्टाचार की गंध सीधे महसूस की जा सकती है। धूमिल किसी विचारधारा के कवि नहीं थे। वे समय और समाज की धड़कनों को सुनते थे और उनकी बेचैनी को शब्द देते थे।
आज जब व्यवस्था पर सवाल उठाने की जरूरत पहले से कहीं ज्यादा है, धूमिल की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। उनकी कविता हमें बताती है कि साहित्य सिर्फ अभिव्यक्ति नहीं, सामाजिक जिम्मेदारी भी है। धूमिल ने सच को कहने का साहस दिखाया। उन्होंने भाषा को हथियार बनाया और व्यवस्था की आँखों में आँखें डालकर सवाल किए।

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धूमिल को हिन्दी कविता का सबसे बेबाक और ईमानदार प्रतिरोधी स्वर इसलिए माना जाता है क्योंकि उन्होंने अपने समय की विडंबनाओं को बिना छुपाए सामने रखा। उनकी कविता आज भी उतनी ही ताजा और जरूरी महसूस होती है। धूमिल ने जो लिखा, वह समय के खिलाफ खड़ा शब्द-संघर्ष है और यही संघर्ष उन्हें सच्चे अर्थों में जनकवि बनाता है।

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