August 6, 2025

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कहानी- राखी की चिट्ठी

कविता ने खिड़की से बाहर देखा। आसमान पर बादल तैर रहे थे, पर हवा में कोई नमी नहीं थी। आज रक्षाबंधन था — वही दिन, जिसे वो कभी सालभर इंतज़ार करके गिनती थी। पर अब, यह दिन उसके कैलेंडर में केवल एक ‘परछाई’ बनकर रह गया था।
उसके सामने लकड़ी की छोटी सी डिबिया रखी थी — वही जिसमें वो हर साल भाई विवेक के लिए राखी रखकर भेजती थी। उसने धीरे से डिबिया खोली। अंदर एक सफेद रेशमी राखी थी, बीच में ओम का निशान और बाईं ओर एक पुरानी चिट्ठी—जो दस साल पहले विवेक ने भेजी थी। तब उसने लिखा था—“तेरी भेजी राखी मिल गई बहन, कलाई भारी हो गई… जैसे तेरे बचपन का भार फिर से बँध गया हो।”
कविता की आंखें भर आईं। वह चिट्ठी अब तक नहीं भूली। तब विवेक नौकरी के पहले साल में था, और उसके बाद… जैसे हर साल उसकी व्यस्तताएँ उसकी कलाई पर बँधने से ज़्यादा ज़रूरी होती गईं।
पिछले चार सालों से कविता सिर्फ भेजती रही — राखी, चिट्ठी और माँ के हाथ की बनी मठरियाँ। जवाब में कभी एक छोटा-सा व्हाट्सऐप मैसेज, कभी बस एक “Thanks behna” और कई बार तो वो भी नहीं।

माँ अब बहुत कम बोलती थीं। राखी पर बस इतना कहतीं— “विवेक इस साल भी नहीं आ पाएगा… पर तू राखी भेज देना। बहनें इंतज़ार नहीं छोड़तीं।”

माँ की बातों में अब भी विश्वास था, पर कविता के दिल में इंतज़ार की जगह धीरे-धीरे चुप्पी ने ले ली थी।

अचानक दरवाज़े की घंटी बजी।

बाहर वही डाकिया खड़ा था — गोविंद जी। पिछले पंद्रह सालों से वे ही हर रक्षाबंधन पर कविता के घर राखी लेने आते थे।

“कविता बिटिया, इस बार भेज रही हो ना?” उन्होंने धीरे से पूछा।

कविता ने सिर झुकाया, “इस बार नहीं गोविंद काका… इस बार मैं राखी नहीं भेजूंगी।”

डाकिया चुप हो गया। उसके चेहरे पर कुछ अधूरा सा लटका रह गया। वह कुछ क्षण रुका, फिर अपनी झोली से एक छोटा सा लिफाफा निकाला।

“ये कल आया है। तुम्हारे नाम,” कहकर उन्होंने लिफाफा बढ़ाया।

कविता चौंकी। उसने काँपते हाथों से लिफाफा लिया। ऊपर बड़े अक्षरों में लिखा था—“कविता दीदी के नाम – इस बार खुद लिखा है।”भेजने वाले का नाम नहीं था, पर उसकी आँखें बता रही थीं — यह विवेक की चिट्ठी थी।

उसने धीरे से लिफाफा खोला।

चिट्ठी में स्याही कुछ धुंधली थी, पर शब्दों में गहराई साफ़ झलक रही थी:

_“दीदी,

बहुत दिन हो गए तुमसे ढंग से बात किए। हर साल तुम राखी भेजती रहीं और मैं अपनी व्यस्तताओं के पीछे छिपता रहा। पर इस बार कुछ बदला है।

कल माँ का फोन आया था, उन्होंने बहुत धीमी आवाज़ में कहा — ‘बहनें इंतज़ार नहीं छोड़तीं, बेटा। लेकिन जब भाई भूल जाए, तो राखी की डोर भी कांप जाती है।’

उस एक वाक्य ने मुझे भीतर तक हिला दिया।

मुझे याद है, जब पापा गए थे, तो तुमने ही मेरी कलाई पकड़ कर कहा था — ‘अब तू ही मेरा सब कुछ है।’ उस दिन जो वादा किया था, आज उसे निभाने का वक्त है।
मैं इस राखी पर आ रहा हूँ। कोई मीटिंग, कोई डेडलाइन नहीं रोकेगी। और दीदी… इस बार मैं सिर्फ राखी नहीं, वो सारे साल भर के अधूरे पल भी साथ लाऊँगा।”_
कविता की आंखों से आंसू बह निकले। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि विवेक लौट रहा है। वो लिफाफा उसने माँ को दिखाया। माँ ने बस इतना कहा — “मैंने कहा था ना, बहनें इंतज़ार करना जानती हैं।”
विवेक के आने से पहले घर को सँवारने की होड़ सी लग गई। माँ ने पुराने एल्बम निकाले, कविता ने बालकनी में पुराने पौधे फिर से लगाए। उस शाम माँ ने एक साड़ी निकाली — वही जो उन्होंने विवेक की पहली नौकरी के दिन पहनी थी।
रात को माँ-बेटी बैठकर चाय पी रही थीं। माँ बोलीं, “राखी सिर्फ बहन की सुरक्षा की मांग नहीं होती, ये भाई को भी अपने मूल की याद दिलाती है। जब वो भटकने लगता है, तो यही धागा उसे खींच लाता है।”
अगले दिन विवेक आया। गेट पर जैसे ही उसकी टैक्सी रुकी, माँ ने थाली निकाली और कविता दौड़ पड़ी।
वो मिलन कोई फिल्मी दृश्य नहीं था, पर उससे कहीं ज़्यादा सच्चा था। आँखों में पछतावे, बाँहों में अपनापन और चुप्पियों में सारा संवाद था।
राखी के दिन कविता ने एक छोटी सी पूजा रखी। विवेक ने कलाई आगे बढ़ाई, पर कविता ने थाली रोक ली। उसने एक लिफाफा निकाला — वही पुराना, जिसमें पहली बार विवेक ने चिट्ठी भेजी थी।
कविता बोली, “इस बार राखी बाँधने से पहले, मैं तुम्हें वो दिन लौटा रही हूँ, जब हम दोनों बस भाई-बहन थे — न ज़िम्मेदारियाँ थीं, न दूरियाँ।”
विवेक ने लिफाफा खोला, और एक छोटी सी फोटो निकली — दोनों की बचपन की तस्वीर। उसके चेहरे पर मुस्कान फैल गई।

“अब बाँधो,” उसने कहा।

कविता ने राखी बाँधी। विवेक ने उसे एक छोटी सी डायरी दी। उसमें लिखा था — “अब हर साल की राखी पर तेरा एक दिन पक्का।”
एक हफ्ता कैसे बीता, पता ही नहीं चला। विवेक माँ को डॉक्टर के पास भी ले गया, और कविता के स्कूल गया जहाँ उसने बच्चों को गिफ्ट्स दिए।

रात को छत पर तीनों बैठे थे। माँ ने कहा, “अबकी बार राखी पूरी हुई।”

विवेक ने कहा, “इस बार नहीं… हर बार।”

एक महीने बाद विवेक वापस चला गया, लेकिन इस बार उसने एक वादा निभाया। हर रविवार माँ को कॉल, हर महीने कविता को चिट्ठी, और हर साल राखी पर घर आना।
कविता ने अब राखी भेजना बंद कर दिया — क्योंकि अब उसे भेजने की ज़रूरत नहीं थी। अब भाई खुद ले जाने आने लगा था।
रक्षाबंधन अब उसके लिए कोई रस्म नहीं था, वो एक जीवित संबंध था — जिसमें धागा हर साल नया नहीं, पर रिश्तों की गाँठ और मजबूत करता था।

प्रियंका सौरभ
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,