November 21, 2024

राष्ट्र की परम्परा

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कभी आंखें नम हुई तो कभी उत्साह से चेहरा खिल उठा

गोरखपुर (राष्ट्र की परम्परा)। दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग व केंद्रीय हिंदी निदेशालय, उच्च्चतर शिक्षा विभाग, शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में ‘हिंदी भाषा और साहित्य: आलोचना का मूल्य और डॉ. रामचन्द्र तिवारी ‘ विषयक तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का प्रथम तकनीकी सत्र विषय ‘ रामचंद्र तिवारी स्मृति ‘ पर केंद्रित रहा। इस सत्र की अध्यक्षता प्रो. रामदेव शुक्ल ने किया। उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि रामचंद्र तिवारी एक पूर्ण शिक्षक थे। उनके अध्यापन का विशेष पक्ष यह था कि वह सोचते हुए अध्यापन करते थे इस पद्धति की विशेषता यह है कि कई बार हम अपने ही पढ़ाए हुए विषय को जब दोबारा पढ़ाते हैं। तो उसमें नई व्यंजना की तलाश होती है। तिवारी जी की प्रेरणा से मुझे इस पद्धति का लाभ सदैव मिला।
इस स्मरण सत्र की विशेष बात यह रही कि मंचासीन सारे विद्वान आचार्य रामचंद्र तिवारी के की शिष्य परंपरा में रहे हैं। इस सत्र को प्रोफेसर अनंत मिश्र, प्रोफेसर केसी लाल, प्रोफेसर अमरनाथ शर्मा, प्रोफेसर जनार्दन, नवनीत मिश्र एवं आचार्य रामचंद्र तिवारी के सुपुत्र प्रोफेसर धर्मव्रत्त तिवारी ने भी संबोधित किया।
इन सब विद्वान आचार्य ने एक से एक विशिष्ट संस्मरण सुनाया, जिससे आचार्य रामचंद्र तिवारी की ऊंचाई, निष्ठा और विशद अध्ययन का पता चलता है।
इन विद्वानों ने बताया कि आचार्य रामचंद्र तिवारी मूलतः बेहद संवेदनशील शिक्षक, लेखक व आलोचक थे। वह नारियल की तरह बाहर से तो कठोर किंतु अंदर से बेहद मुलायम थे। उनकी शिष्य वत्सलता जग जाहिर है। वह एक महान शिक्षक थे, जिन्होंने पढ़ाने एवं आलोचना कर्म के साथ-साथ शिष्यों का भी निरंतर पोषण एवं चिंतन किया।
उनकी यह एक बड़ी विशेषता थी कि वह अपने शिष्यों को हमेशा आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाते थे। वह अपने शिष्यों से स्पष्ट करते थे कि परिश्रम का कोई दूसरा विकल्प नहीं हो सकता। उन्होंने अपने जीवन का हर क्षण साहित्य को समर्पित किया। वह कभी किसी तरह की खेमेबाजी या गोलबंदी में नहीं रहे। एक शिक्षक एवं आलोचक के रूप में वह सदैव तटस्थ एवं कठोर रहते थे। सादगी से परिपूर्ण उनका जीवन आज के समय में एक आदर्श है। उन्होंने साहित्य की एक समृद्ध एवं सक्षम पीढ़ी का निर्माण किया।
वह अपनी कक्षा में कभी भी बिना पढ़े हुए, पढ़ाने नहीं जाते थे। इन संस्मरणों से श्रोतागण भाव, जिजीविषा व ज्ञान के सागर में गोता लगाते रहे। कभी आंखें सजल हुई तो कभी उत्साह से चेहरा खिल उठा।
इस सत्र का संचालन डॉ. नागेश राम त्रिपाठी व आभार ज्ञापन डॉ. अखिल मिश्र ने किया।